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________________ 418] [उत्तराध्ययनसूत्र होना और आरम्भ-दूसरे को विनष्ट करने के कारणरूप मंत्रादि का जाप करना / इन तीनों प्रकार के वचनों से अपनी जिह्वा को रोके और तत्काल शुभवचन में प्रवृत्त करे / ' कायगुप्ति : प्रकार और विधि 24. ठाणे निसीयणे चेव तहेव य तुयट्टणे / उल्लंघण-पल्लंघणे इन्दियाण य जुजणे // [24] खड़े होने में, बैठने में, त्वगवर्तन--(करवट बदलने या लेटने) में तथा उल्लंघन (खड्डा, खाई वगैरह लांघने) में, प्रलंघन (सीधा चलने-फिरने) में और इन्द्रियों के (शब्दादि विषयों के) प्रयोग में (प्रवर्तमान मुनि कायगुप्ति करे / वह इस प्रकार-.) / 25. संरम्भ-समारम्भे आरम्भम्मि तहेव य / कायं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई / / [25] यतनावान् यति संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ में प्रवृत्त होती हुई काया का निवर्तन करे। विवेचन-कायगुप्ति के लिए संरम्भादि से काया को रोकना आवश्यक-संरम्भ का अर्थ यद्यपि संकल्प होता है, तथापि यहाँ उपचार से अर्थ होता है-मारने के लिए मुक्का तानना, लाठी उठाना, अर्थात् किसी को मारने के लिए उद्यत होना। समारम्भ-लात, मुक्का आदि से मारना, चोट पहुँचाना तथा आरम्भ-प्राणियों के वध के लिए लाठी, तलवार आदि का उपयोग करना / काया जब संरम्भादि में से किसी में प्रवृत्त हो रही हो, तभी उसे रोकना कायगुप्ति है / समिति और गुप्ति में अन्तर 26. एयानो पंच समिईप्रो चरणस्स य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो॥ [26] ये पांच समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और तीन गुप्तियाँ समस्त अशुभ विषयों (अर्थों) से निवृत्ति के लिए कही गई हैं। विवेचन-निष्कर्ष समितियां प्रवृत्तिरूप हैं, जब कि गुप्तियाँ प्रवृत्ति-निवृत्ति उभयरूप हैं। 1. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भाग 2, पत्र 194 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 3, पृ. 991 2. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 993 3. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 994 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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