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________________ चौवीसवाँ अध्ययन : प्रवचनमाता] [417 विवेचन चतुर्विध मनोगुप्तियों का स्वरूप---(१)सत्य मनोगुप्ति-मन में सत् (सत्य) पदार्थ के चिन्तनरूप मनोयोग सम्बन्धी गुप्ति / जैसे-जगत् में जीव तत्व है, यो सत्य पदार्थ का चिन्तन / (2) असत्य मनोगुप्ति- -असत्पदार्थ के चिन्तनरूप मनोयोग सम्बन्धी गुप्ति / यथा-जगत् में जीवतत्त्व नहीं है। (3) सत्यामषा मनोगुप्ति-सत और असत दोनों के चिन्तनरूप मनोयोग सम्बन्धी गप्ति / यथा-ग्राम्र प्रादि विविध वक्षों का वन देख कर, यह आम्र का वन है, ऐसा चिन्तन करना। (4) असत्यामृषा मनोगुप्ति-जो चिन्तन सत्य भी न हो, असत्य भी न हो / यथादेवदत्त ! घड़ा ले पाए, इत्यादि प्रादेश-निर्देशात्मक वचन का मन में चिन्तन करना / ' मनोगुप्ति के लिए मन को तीन के चिन्तन से हटाना प्रस्तुत गाथा 21 में शास्त्रकार ने कहा है, यदि मनोगुप्ति करना चाहते हो तो मन को संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ, इन तीनों में प्रवृत्त होने से रोको, किसी शुभ या शुद्ध संकल्प में मन को प्रवृत्त करो। (1) संरम्भ-अशुभ संकल्प करना / जैसे - 'मैं ऐसा ध्यान करू, जिससे वह मर जाएगा, या मरे।' (2) समारम्भ-परपीड़ाकारक उच्चाटनादि से सम्बन्धित ध्यान को उद्यत होना / जैसे—मैं अमुक को उच्चाटन आदि करके पीड़ा पहुँचाऊँगा या पहुँचाऊँ, जिससे उसका उच्चाटन हो जाए। (3) आरम्भ-दूसरों के प्राणों को कष्ट कर सकने वाले अशुभ परिणाम करना / ऐसे अशुभ में प्रवर्त्तमान मन को अशुभ से हटा कर आगमोक्त विधि अनुसार शुभ में प्रवृत्त करे। वचनगुप्ति : प्रकार और विधि 22. सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य / चउत्थी असच्चमोसा वइगुत्तो चउव्विहा // ___ [22] वचनगुप्ति के चार प्रकार हैं-(१) सत्या, (2) मृषा, तथा (3) सत्यामृषा और (4) असत्यामृषा / 23. संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव य / वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई // [23] यतनावान् यति (मुनि) संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ में प्रवर्त्तमान वचन का निवर्त्तन करे (रोके और शुभ में प्रवृत्त करे)। विवेचन---सत्या प्रादि चारों वचनगुप्तियों का स्वरूप- मनोगुप्ति की तरह ही समझना चाहिए / अन्तर इतना ही है कि मनोगुप्ति में मन में चिन्तन है, जब कि वचनगुप्ति में वचन से बोलना है। वचनगुप्ति के लिए तीन से वचन को हटाना- संरम्भ-दूसरे का विनाश करने में समर्थ मंत्रादि गिनने के संकल्प के सूचक शब्द बोलना / समारम्भ-परपीडाकारक मंत्रादि जपने को उद्यत ---..-...-- 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 194 2. वही भा. 2, पत्र 194 3. (क) उत्तरा. प्रियशनीटीका भा. 3, पृ. 990 (ख) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. 2, पत्र 194 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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