________________ 416] [उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन-उच्चार प्रादि पदों के विशेषार्थ--उच्चार--मल, प्रस्रवण-मूत्र, खेल-श्लेष्मकफ, सिंघाण-नाक का मैल (लीट), जल्ल - शरीर का मैल, पसीना, आहार (परिष्ठापन योग्य), उपकरण (उपधि) और शरीर (मत शव) तथा अन्य--भक्त शेष अन्न-जल (ऐंठवाड) या टूटे पात्र, फटे हुए वस्त्र आदि का विवेक पूर्वक स्थण्डिलभूमि में व्यूत्सर्ग करे / ' अनापात-असंलोक आदि चतुर्विध स्थण्डिलभूमि-(१) अनापात-असंलोक-जहाँ लोगों का आवागमन न हो तथा दूर से भी वे न दीखते हों, (2) अनापात-संलोक-जहाँ लोगों का आवागमन न हो, किन्तु लोग दूर से दीखते हों, (3) आपात-असंलोक-लोगों का जहाँ आवागमन हो, किन्तु वे दीखते न हों और (4) आपात-संलोक-जहाँ लोगों का आवागमन भी हो, और वे दिखाई भी देते हों। इन चारों प्रकार की स्थण्डिलभूमियों में से प्रथम प्रकार की अनापात-असंलोक भूमि ही विसर्जन योग्य होती है। अचिरकालकयंमि- इसका अर्थ है कि स्वल्पकाल पूर्व दग्ध स्थानों में मलादि विसर्जन करे / बृहद्वृत्तिकार इसका प्राशय बताते हैं कि स्वल्पकाल पूर्व जो स्थान दग्ध होता है, वह सर्वथा अचित्त (निर्जीव) होता है, जो चिरकालदग्ध होते हैं, वहाँ पृथ्वीकायादि के जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं / समिति का उपसंहार और गुप्तियों का प्रारम्भ 19. एयाओ पंच समिईओ समासेण वियाहिया। एत्तो य तओ गुत्तोओ बोच्छामि अणुपुध्वसो॥ [16] ये पांच समितियाँ संक्षेप में कही गई हैं, अब यहाँ से तीन गुप्तियों के विषय में क्रमश: कहूँगा। मनोगुप्ति : प्रकार और विधि ~20. सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य / चउत्थी असच्चमोसा मणगुत्ती चउन्विहा / / [20] मनोगुप्ति चार प्रकार की है—(१) सत्या (सच), (2) मृषा (झूठ) तथा (3) सत्यामृषा (सच और झूठ मिश्रित) और चौथी (4) असत्यामृषा (जो न सच है, न झूठ है केवल लोकव्यवहार है)। 21. संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव य / मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई॥ [21] यतनावान् यति (मुनि) संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ में प्रवृत्त होते हुए मन का निवर्तन करे। 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्त र भावन गर) भा. 2, पत्र 192 2. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 193 (ख) उत्तरा. (साध्वी चन्दना), पृ. 254 3. (क) बृहवृत्ति, पत्र 518 (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 193 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org