________________ 414] [उत्तराध्ययनसून में उद्गम और उत्पादना संबंधी दोषों का शोधन करे। दूसरी एषणा (ग्रहणैषणा) में आहारादि ग्रहण करने से सम्बन्धित दोषों का शोधन करे तथा परिभोगैषणा में दोषचतुष्टय का शोधन करे / ___विवेचन--गवेसणा---गाय की तरह एषणा अर्थात् शुद्ध आहार की खोज (तलाश) करना। ग्रहणैषणा-ग्रहणा का अर्थ है विशुद्ध आहार लेना, अथवा आहार ग्रहण के सम्बन्ध में एषणा अर्थात् विचार ग्रहणषणा कहलाती है। परिभोगैषणा-परिभोग का अर्थ है-भोजन के मण्डल में बैठकर भोजन का उपभोग (सेवन) करते समय की जाने वाली एषणा। तीनों एषणाएँ : तीन विषय में-पूर्वोक्त तीनों एषणाएँ केवल आहार के विषय में ही शोधन नहीं करनी है, अपितु आहार, उपघि (वस्त्र-पात्रादि) और शय्या (उपाश्रय, संस्तारक यादि), इन तीनों के विषय में शोधन करनी हैं। . किस एषणा में किन दोषों का शोधन आवश्यक ?--गवेषणा (प्रथम एषणा) में प्राधाकर्म आदि 16 उद्गम के और धात्री आदि 16 उत्पादना के दोषों का शोधन करना है / ग्रहणैषणा में शंकित आदि 10 एषणा के दोषों का तथा परिभोगैषणा में संयोजना, प्रमाण, अंगार-धूम और कारण, इन चार दोषों का शोधन करना है। अगर अंगार और धूम इन दो दोषों को अलग-अलग माने तो परिभोगैषणा के 5 दोष होने से कुल 16+16+10+5-47 दोष होते हैं / यहाँ अंगार और धम दोनों दोष मोहनीयकर्म के अन्तर्गत होने से दोनों को मिला कर एक दोष कहा गया है। परिभोगैषणा में चतुष्कविशोधन-परिभोगैषणा में चार वस्तुओं का विशोधन करने का विधान दशवैकालिकसूत्र के अनुसार इस प्रकार है-'पिण्डं सेज्जं च वत्थं च चउत्थं पायमेव य / ' अर्थात्-पिण्ड, शय्या, वस्त्र और चौथा पात्र, इन चार का उद्गमादि दोषों के परिहार पूर्वक सेवन करे। प्रादान-निक्षेपसमिति : विधि 13. ओहोवहोवग्गहियं भण्डगं दुविहं मुणी। गिण्हन्तो निक्खिवन्तो य पउंजेज्ज इमं विहिं / |13| मुनि प्रोघ-उपधि और औपग्रहिक-उपधि, इन दोनों प्रकार के भाण्डक (अर्थात् उपकरणों) को लेने और रखने में इस (आगे कही गई) विधि का प्रयोग करे / - 14. चक्खुसा पडिलेहित्ता पमज्जेज्ज जयं जई। ___ आइए निविखवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया।। [14] समितिवान् (उपयोगयुक्त) एवं यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला मुनि पूर्वोक्त दोनों 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भाग 2, पत्र 192 2. (क) बृहुवृत्ति, पत्र 617 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 981 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org