________________ चौवीसवाँ अध्ययन : प्रवचनमाता] [413 का जुआ पीछे से विस्तृत और प्रारम्भ में संकड़ा होता है, वैसी ही साधु की दृष्टि हो / युग लगभग 3 // हाथ प्रमाण लम्बा होता है, इसलिए मुनि 3 // हाथ प्रमाण भूमि देख कर चले / ' दस बोलों का वर्जन-इन्द्रियों के शब्दादि पांच विषयों को तथा वाचना आदि पांच प्रकार के स्वाध्याय को यानी इन दस बोलों को छोड़ कर गमन करे / गमन के समय स्वाध्याय भी वर्ण्य कहा गया है / क्योंकि स्वाध्याय में उपयोग लगाने से मार्ग संबंधी उपयोग नहीं रह सकता / दो उपयोग एक साथ होते नहीं हैं। भाषासमिति 9. कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया / हासे भए मोहरिए विगहासु तहेव य / [6] क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य और विकथाओं के प्रति सतत उपयोगयुक्त होकर रहे। ~10. एयाई अट्ठ ठाणाइं परिवज्जित्तु संजए। असावज्जं मियं काले भासं भासेज्ज पन्नवं // [10] प्रज्ञावान् संयमी साधु इन पाठ (पूर्वोक्त) स्थानों को त्यागकर उपयुक्त समय पर निरवद्य (दोषरहित) और परिमित भाषा बोले / विवेचन–असावज्ज-असावध अर्थात्-पाप (-दोष) रहित निरवद्य / क्रोधादिवश बोलने का निषेध–जब क्रोधादि के वश या क्रोध आदि के आवेश में बोला जाता है, तब प्राय: शुभ भाषा नहीं बोली जाती, अतएव बोलते समय क्रोधादि के आवेश का त्याग करना चाहिए। एषणाशुद्धि के लिए एषणा समिति -11. गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा। आहारोवहि-सेज्जाए एए तिन्नि विसोहए। [11] गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगैषणा से आहार, उपधि और शय्या, इन तीनों का परिशोधन करे। 412. उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज्ज एसणं / परिभोयंमि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई। [12] यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला संयत, प्रथम एषणा (आहारादि की गवेषणा) 1. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 975-976 (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 190 2. उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 3 पृ. 976 3. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org