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________________ 412] [उत्तराध्ययनसूत्र [4] संयमी साधक पालम्बन, काल, मार्ग और यतना, इन चार कारणों से परिशुद्ध र्या (गति) से विचरण करे। ~ 5. तत्थ आलंबणं नाणं दंसणं चरणं तहा। काले य दिवसे वुत्ते मग्गे उप्पहवज्जिए॥ [5] (इन चारों में) ईर्यासमिति का आलम्बन-ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र है, काल सेदिवस ही विहित है और मार्ग-उत्पथ का वर्जन है। 6. दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। जयणा चउब्विहा वुत्ता तं मे कित्तयओ सुण // [6] द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से यतना चार प्रकार की कही गई है / उसे मैं कह रहा हूँ, सुनो। ~ 7. दवओ चक्खुसा पेहे जुगमित्तं च खेत्तओ। कालओ जाव रीएज्जा उवउत्ते य भावओ। 7 द्रव्य (की अपेक्षा) से---नेत्रों से (गन्तव्य मार्ग को) देखे, क्षेत्र से—युगप्रमाण भूमि को देखे, काल से जब तक चलता रहे, तब तक देखे और भाव से- उपयोगपूर्वक गमन करे / - 8. इन्दियत्थे विवज्जित्ता सज्झायं चेव पंचहा / तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे उवउत्ते इरियं रिए / [4] (गमन करते समय) इन्द्रिय-विषयों और पांच प्रकार के स्वाध्याय को छोड़ कर, केवल गमन-क्रिया में ही तन्मय होकर, उसी को 'प्रमुख (आगे)' करके (महत्त्व देकर) उपयोगपूर्वक गति (ई) करे। विवेचन-चार प्रकार की परिशुद्धि क्यों ? - ईर्यासमिति की परिशुद्धि के लिए जो चार प्रकार बताए हैं, उनका आशय यह है कि मुनि निरुद्देश्य गमनादि प्रवृत्ति न करे। वह किसलिए गमन करे ? कब गमन करे ? किस क्षेत्र के गमन करे ? और किस विधि से करे ? ये चारों भाव ईर्या के साथ लगाये / तभी परिशुद्धि हो सकती है। वह ज्ञान, दर्शन अथवा चारित्र के उद्देश्य से गमन करे / दिन में ही गमन करे, रात्रि में ईर्याशुद्धि नहीं हो सकती। रात्रि में बड़ी नीति, लघुनीति परिष्ठापन के लिए गमन करना पड़े तो प्रमार्जन करके चले। मार्ग से—उन्मार्ग को छोड़कर गमन करे, क्योंकि उन्मार्ग पर जाने से आत्मविराधना आदि दोष संभव हैं / यतना चार प्रकार की है-द्रव्य से नेत्रों से देख भाल कर गमन करे / क्षेत्र से युगमात्र भूमि देख कर चले / काल से जहाँ तक चले, देख कर चले तथा भाव से उपयोगसहित चले / ' जुगमित्तं तु खेत्तओ-युगमात्र का विलोकन-युग का अर्थ है—गाड़ी का जुग्रा / गाड़ी 1. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2. पत्र 190 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 3, पृ. 976 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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