________________ 406] [उत्तराध्ययनसूत्र केशी कुमार द्वारा गौतम को अभिवन्दन एवं पंचमहावतधर्म स्वीकार 85. साहु गोयम! पन्ना ते छिन्नो मे संसश्रो इमो। नमो ते संसयाईय! सव्वसुत्तमहोयही ! // [85] हे गौतम ! श्रेष्ठ है आपकी प्रज्ञा ! आपने मेरा यह संशय भी दूर किया ! हे संशयातीत ! हे सर्वश्रुत-महोदधि ! आपको मेरा नमस्कार है। 86. एवं तु संसए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे / ____ अभिवन्दित्ता सिरसा गोयमं तु महायसं / / [86] इस प्रकार संशय निवारण हो जाने पर घोरपराक्रमी केशी कुमारश्रमण ने महायशस्वी गौतम को मस्तक से अभिवन्दना करके 87. पंचमहन्वयधम्म पडिवज्जइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमंमी मग्गे तत्थ सुहावहे / / [87] पूर्व जिनेश्वर द्वारा अभिमत (-प्रवर्तित तीर्थ से) उस सुखावह अन्तिम (पश्चिम) तीर्थकर द्वारा प्रवर्तित मार्ग (तीर्थ) में पंचमहाव्रतरूप धर्म को भाव से अंगीकार किया। विवेचन-केशी कुमारश्रमण गौतम से प्रभावित-केशी श्रमण गौतम स्वामी के द्वारा अपनी शंकाओं का समाधान होने से बहुत ही सन्तुष्ट एवं प्रभावित हुए। इसी कारण उन्होंने गौतम को संशयातीत, सर्वसिद्धान्तसमुद्र शब्द से सम्बोधित किया तथा मस्तक झुकाकर बन्दन-नमन किया। साथ ही उन्होंने पहले जो चातुर्यामधर्म ग्रहण किया हुआ था, उसका विलीनीकरण अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर के पंचमहाव्रतरूपधर्म में कर दिया, अर्थात् पंचमहाव्रतधर्म को अंगीकार किया। पुरिमस्स पच्छिमंमी मग्गे०--(१) पुरिम अर्थात्-पूर्व (आदि) तीर्थकर के द्वारा अभिमत (प्रवर्तित) उस सुखावह अन्तिम (पश्चिम) तीर्थकर द्वारा प्रवर्तित मार्ग (तीर्थ) में, अथवा (2) पूर्व (गृहीत चातुर्यामधर्म के) मार्ग से (उस समय गौतम के वचनों से) सुखावह पश्चिममार्ग (भ. महावीर द्वारा प्रवर्तित तीर्थ) में / / उपसंहार : दो महामुनियों के समागम की फलश्रुति 88. केसीगोयमओ निच्चं तम्मि प्रासि समागमे / सुय--सोलसमुक्करिसो महत्थऽस्थविणिच्छओ॥ [8] उस तिन्दुक उद्यान में केशी और गौतम, दोनों का जो समागम हुआ, उससे श्रुत तथा शील का उत्कर्ष हुआ और महान् प्रयोजनभूत अर्थों का विनिश्चय हुआ। 1. उत्तरा० बृत्ति, अभिधान रा. कोश भा. 3, पृ. 966 2. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. 2, पत्र 188 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा, 3, पृ. 967 (ग) अभि, रा. कोश भा. 3, पृ. 966 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org