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________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमीय] [405 [2] (केशी कुमारथमण)--वह स्थान कौन-सा कहा गया है ? —केशी ने गौतम से पूछा / केशी के इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा 83. निव्वाणं ति अबाहं ति सिद्धी लोगग्गमेव य। खेमं सिवं अणाबाहं जं चरन्ति महेसिणो॥ 84. तं ठाणं सासयं वासं लोगग्गंमि दुरारुहं / जं संपत्ता न सोयन्ति भवोहन्तकरा मुणी // 83-84] (गणधर गौतम)--जिस स्थान को महामुनि जन ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध (इत्यादि नामों से प्रसिद्ध) है। भवप्रवाह का अन्त करने वाले महामुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, वह स्थान लोक के अग्रभाग में है, शाश्वतरूप से (मुक्त जीव का) वहाँ वास हो जाता है, जहाँ पहुँच पाना अत्यन्त कठिन विवेचन खेमं सिवं अणाबाहं : क्षेम---व्याधि आदि से रहित, शिव--जरा, उपद्रव से रहित, अनाबाधं--शत्रुजन का अभाव होने से स्वाभाविक रूप से पीडारहित / दुरारुहं—जो स्थान दुष्प्राप्य हो, जहाँ पर आरूढ होना कठिन हो / वाहिणो—वात, पित्त, कफ आदि से उत्पन्न रोग। सासयं : शाश्वत-स्थायी निवास वाला स्थान / निव्वाणं : निर्वाण-जहाँ संताप के अभाव के कारण जीव शान्तिमय हो जाता है। अबाहं : अबाध---जहाँ किसी प्रकार की भय आदि बाधा न हो। सिद्धी : जहाँ संसार-परिभ्रमण का अन्त हो जाने से समस्त प्रयोजन सिद्ध होते हैं।' जंचरंति महेसिणो—जिस भूमि को महषि-महामुनि सुख से प्राप्त करते हैं। अर्थात्--वीतराग मुनिराज चक्रवर्ती से अधिक मुखभागी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं / 1. (क) क्षेम-व्याध्यादिहितम, शिवं-जरोपद्रवरहितं, अनावाधं-शत्रुजनाभावात् स्वभावेन पीडारहितम् / (ख) दु:खेन पारुह्यते यस्मिन तत् दारोह, दुष्प्राप्यमित्यर्थः / (ग) वाहिणो व्याधयः वातपित्तकफश्लेष्मादयः / (घ) शाश्वतं-सदातनं, वासः-स्थानम् / / (ग) निर्वान्ति संतापस्याभावात शीतीभवन्ति जीवा अस्मिन्निति निर्वाणम् / (घ) न विद्यते वाधा यस्मिन् तदवाधम्-निर्भयम् / (ड) सिध्यन्ति समस्तकार्याणि भ्रमणाभावात् यस्यां सा सिद्धिः। - उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. को. भा. 3, पृ. 966 2. महर्षयोऽनाबाधं यथा स्यात्तथा, चरन्ति व्रजन्ति सुखेन मुनयः प्राप्नुवन्ति / मुनयो हि चक्रवर्त्यधिकसुखभाजः सन्तो मोक्षं लभन्ते, इति भावः / -वही, पृ. 966, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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