________________ 404] [उत्तराध्ययनसूत्र 78. उग्गओ खीणसंसारो सम्वन्नू जिणभक्खरो। सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोयंमि पाणिणं // [78] (गणधर गौतम)---जिसका संसार क्षीण हो चुका है, जो सर्वज्ञ है, ऐसा जिन-भास्कर उदित हो चुका है / वही सारे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा। विवेचन--अन्धयारे तमे घोरे----यहाँ अन्धकार का संकेत अज्ञानरूप अन्धकार से है तथा प्रकाश का अर्थ-ज्ञान / संसार के अधिकांश प्राणी अज्ञानरूप गाढ़ अन्धकार से घिरे हुए हैं, उन्हें सद्ज्ञान का जाज्वल्यमान प्रकाश देने वाले सूर्य जिनेन्द्र हैं। ___ यद्यपि 'अन्धकार' और 'तम' शब्द एकार्थक हैं, तथापि यहाँ 'तम' अन्धकार का विशेषण होने से 'तम' का अर्थ यहाँ गाढ़ होता है / ' विमलो भाणू-निर्मल भानु का तात्पर्य यहाँ बाह्यरूप में बादलों से रहित सूर्य है, किन्तु अान्तरिक रूप में कर्मरूप मेघ से अनाच्छादित विशुद्ध केवलज्ञानयुक्त सर्वज्ञ परम आत्मा / आत्मा जब पूर्ण विशुद्ध होता है, तब सर्वज्ञ, केवली, राग द्वेष-मोह-विजेता, अष्टविध कर्मों से सर्वथा रहित हो जाता है / ऐसे परम विशुद्ध प्रात्मा जिनेश्वर ही है, वही सम्पूर्ण लोक में प्रकाश-सम्यग्ज्ञान प्रदान करते हैं / / बारहवाँ प्रश्नोत्तर : क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान के विषय में 79. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! // [76] (केशी कुमारश्रमण)—गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा निर्मल है। तुमने मेरा यह संशय तो दूर कर दिया। अब मेरा एक संशय रह जाता है, गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहएि / 80. सारीर-माणसे दुक्खे बज्झमाणाण पाणिणं / खेमं सिवमणाबाहं ठाणं कि मन्नसी मुणो ? // [80] मुनिवर ! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध-बाधारहित स्थान कौन-सा मानते हो? 81. अत्थि एगं धुवं ठाणं लोगग्गंमि दुरारुहं / जत्थ नस्थि जरा मच्चू वाहिणो वेयणा तहा / / [81] (गणधर गौतम)-लोक के अग्रभाग में एक ऐसा ध्र व (अचल) स्थान है, जहाँ जरा (बुढ़ापा), मृत्यु, व्याधियाँ तथा वेदनाएँ नहीं हैं; परन्तु वहाँ पहुँचना दुरारुह (बहुत कठिन) 82. ठाणे य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी / केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी // 1. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा, कोष भा. 3, पृ. 965 2. वही, पृ. 965 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org