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________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमीय। [403 गौतम का प्राशय-गौतमस्वामी के कहने का प्राशय यह है कि जो नौका सछिद्र होती है, वह बीच में ही डूब जाती है, क्योंकि उसमें पानी भर जाता है, वह समुद्रपार नहीं जा सकती। किन्तु जो नौका निश्छिद्र होती है, उसमें पानी नहीं भर सकता, वह बीच में नहीं डूबती तथा वह निविघ्नरूप से व्यक्ति को सागर से पार कर देती है। मैं जिस नौका पर चढ़ा हुआ हूँ, वह सछिद्र नौका नहीं है, किन्तु निश्छिद्र है, अतः वह न तो उगमगा सकती है, न मझधार में डूब सकती है। अतः मैं उस नौका के द्वारा समुद्र को निर्विघ्नतया पार कर लेता हूँ / ' शरीरमाहु नाव ति-शरीर को नौका, जीव को नाविक और संसार को समुद्र कह कर संकेत किया है कि जो साधक निश्छिद्र नौका की तरह समस्त कर्माश्रव-छिद्रों को बन्द कर देता है, वह संसारसागर को पार कर लेता है। आशय यह है कि यह शरीर जब कर्मागमन के कारणरूप पाश्रवद्वार से रहित हो जाता है, तब रत्नत्रय की आराधना का साधनभूत बनता हुआ इस जीवरूपी मल्लाह को संसार-समुद्र से पार करने में सहायक बन जाता है, इसीलिए ऐसे शरीर को नौका की उपमा दी गई है। रत्नत्रयाराधक साधक ही शरीररूपी नौका द्वारा इस संसारसमुद्र को पार करता है, इसलिए इसे नाविक कहा गया है / जीवों द्वारा पार करने योग्य यह जन्ममरणादि रूप संसार है / / ग्यारहवाँ प्रश्नोत्तर : अन्धकाराच्छन्न लोक में प्रकाश करने वाले के सम्बन्ध में 74. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो / अन्नो वि संसओ मज्झ तं मे कहसु गोयमा ! // [74] (केशी कुमारश्रमण)-गौतम ! आपको प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरे इस संशय को मिटा दिया, (किन्तु) मेरा एक और संशय है / उसके विषय में भी आप मुझे बताइए। 75. अन्धयारे तमे घोरे चिट्ठन्ति पाणिणो बह / को करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं? // [75] घोर एवं गाढ़ अन्धकार में (संसार के) बहुत-से प्राणो रह रहे हैं / (ऐसी स्थिति में) सम्पूर्ण लोक में प्राणियों के लिए कौन उद्योत (प्रकाश) करेगा? 76. उग्गओ विमलो भाणू सव्वलोगप्पभंकरो। सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं // [76] (गणधर गौतम)—समग्र लोक में प्रकाश करने वाला निर्मल सूर्य उदित हो चुका है, वही समस्त लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश प्रदान करेगा? 77. भाणू य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममम्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी // [77] (केशी कुमारश्रमण)-केशी ने गौतम से पूछा-'आप सूर्य किसे कहते हैं ?' केशी के इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा---- 1. उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 3, पृ. 953 2. वही, पृ. 954 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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