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________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमोय] [401 66. अस्थि एगो महादीवो वारिमझे महालओ। महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जई // [66] (गणधर गौतम)-जल के मध्य में एक विशाल (लम्बा-चौड़ा महाकाय) महाद्वीप है। वहाँ महान् जलप्रवाह के वेग की गति (प्रवेश) नहीं है। 67. दीवे य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बबी। __ केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी // [67] (केशी कुमार श्रमण)--केशी ने गौतम से (फिर) पूछा-वह (महा) द्वीप आप किसे कहते हैं ? केशी के ऐसा पूछने पर गौतम ने यों कहा 68. जरा-मरणवेगेणं बज्यमाणाण पाणिणं / धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं // [68] (गणधर गौतम)—जरा और मरण (ग्रादि) के वेग से बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है। विवेचन-शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप-सम्बन्धी प्रश्न का प्राशय --संसार में जन्म, जरा, मरण आदि रूप जो जलप्रवाह तीव्र गति से प्राणियों को बहाये ले जा रहा है, प्राणी उसमें डूब जाते हैं, तो उन प्राणियों को डूबने से बचाने, बहने से सुरक्षा करने के लिए कौन शरण प्रादि है ? यह केशी श्रमण के प्रश्न का प्राशय है। शरण का अर्थ यहाँ त्राण देने---रक्षण करने में समर्थ है, गति का अर्थ है-प्राधारभूमि, प्रतिष्ठा का अर्थ है स्थिरतापूर्वक टिकाने वाला ओर द्वीप का अर्थ हैजलमध्यवर्ती उन्नत निवासस्थान / यद्यपि इनके अर्थ पृथक-पृथक हैं, तथापि इन चारों में परस्पर कार्य-कारणभावसम्बन्ध है। इन सबका केन्द्रबिन्दु 'द्वीप' है। इसीलिए दूसरी बार केशी कुमार ने केवल 'द्वीप' के सम्बन्ध में ही प्रश्न किया है।' धम्मो दीवो०---जब केशी श्रमण ने द्वीप आदि के विषय में पूछा तो गौतम ने धर्म (विशाल जिनोक्त रत्नत्रयरूप या श्रुतचारित्ररूप शुद्ध धर्म) को ही महाद्वीप बताया है। वस्तुतः धर्म इतना विशाल एवं व्यापक द्वीप है कि वह संसारसमुद्र में डूबते या उसके जन्म-मरणादि विशाल तोवप्रवाह में बहते हुए प्राणो को स्थान, शरण, आधार या स्थिरता देने में सक्षम है। संसार के समस्त प्राणियों को वह स्थान शरणादि दे सकता है, वह इतना व्यापक है। महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जइ-महान जलप्रवाह के वेग की गति वहाँ नहीं है, जहाँ धर्म है / क्योंकि जो प्राणी शुद्ध धर्म को शरण ले लेता है, धर्मरूपी द्वीप में आकर वस जाता है, टिक जाता है, वह जन्म, जरा, मृत्यु आदि के हेतुभूत कर्मों का क्षय कर देता है, ऐसी स्थिति में जहाँ धर्म होता है, वहाँ जन्म, जरा, मरणादिरूप तीव्र जलप्रवाह पहँच ही नहीं सकता। धर्मरूपी महाद्वीप में 1. (क) शरणं-रक्षणक्षमम , गति-प्राधारभूमि, प्रतिष्ठा-स्थिरावस्थानहेतुम्, द्वीपं-निवासस्थानं जलमध्यवर्ती / ---उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. को, भा. 3, पृ. 964-965 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 3, पृ. 949 2. उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. को. भा, 3, पृ. 965 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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