________________ [3] चित्त का जीव कौशाम्बी में पुरोहित का पुत्र और संभूत का जीव पांचाल राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। 42 दोनों भाई परस्पर मिलते हैं / चित्त ने संभूत को उपदेश दिया किन्तु संभूत का मन भोगों से मुड़ा नहीं। अत: चित्त ने उसके सिर पर धूल फैकी और वहाँ से हिमालय की ओर प्रस्थित हो गया। राजा संभूत को वैराग्य हुआ। वह भी उसके पीछ-पीछे हिमालय की ओर चला / चित्त ने उसे योग-साधना की विधि बताई। दोनों ही योग की साधना कर ब्रह्म देवलोक में उत्पन्न हए। उत्तराध्ययन के प्रस्तुत अध्ययन की गाथाएँ चित्त-संभूत जातक के अन्दर प्रायः मिलती-जुलती हैं / उत्तराध्ययन की कथा विस्तृत है। उसमें अनेक अवान्तर कथाएँ भी हैं। वे सारी कथाएँ ब्रह्मदत्त से सम्बन्धित है। जैन दृष्टि से चित्त मुनिधर्म की आराधना कर एवं सम्पूर्ण कमों को नष्ट कर मुक्त होते हैं। ब्रह्मदत्त कामभोगों में आसक्त बनकर नरकगति को प्राप्त होता है। बौद्धपरम्परा की दृष्टि से संभूत को ब्रह्मलोकगामो बताया गया है। डा. घाटगे का अभिमत है कि जातक का पद्यविभाग गद्यविभाग से अधिक प्राचीन है। गद्यभाग बाद में लिखा गया है। इस तथ्य की पुष्टि भाषा और तर्क के अाधार से होती है। तथ्यों के प्राधार से यह भी सिद्ध है कि उत्तराध्ययन की कथावस्तु प्राचीन है / जातक का गद्यभाग उत्तराध्ययन की रचनाकाल से बहुत बाद में लिखा गया है। उसमें पूर्व भवों का सुन्दर संकलन है, किन्तु जैन कथावस्तु में वह छूट गया है।' 43 उत्तराध्ययन के तेरहवें अध्ययन में जो गाथाएँ आई है, उसी प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति महाभारत के शान्तिपर्व और उद्योगपर्व में भी हुई है / हम यहाँ उत्तराध्ययन की गाथाओं के साथ उन पद्यों को भी दे रहे हैं, जिससे प्रबुद्ध पाठकों को सहज रूप से तुलना करने में सहूलियत हो। देखिए-.. "जहेह सीहो व मियं महाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले / न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिसहरा भवंति // " ---उत्तराध्ययन 13/22 तुलना कीजिये "तं पुत्रपशुसम्पन्न, व्यासक्तमनसं नरम् / सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव, मृत्युरादाय गच्छति / / सचिन्वानक मेवैन, कामानामवितृप्तकम् / व्याघ्रः पशुभिवादाय, मृत्युरादाय गच्छति // " -शान्ति. 175/18, 19 "न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइप्रो, न मित्तवग्गा न सूया न बंधवा / एक्को सयं पच्चणहोइ दुक्खं, कत्तारमेव प्रजाइ कम / / " –उत्तराध्ययन सूत्र 13/23 142. जातक, संख्या 498, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ 600 143. Annals of the Bhandarkar oriental Research Institute, Vol. 17., few Parallels in Jain and Buddhist works, P. 342-343, by A. M.Ghatage, M. A. [ 50 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org