________________ 398] [उत्तराध्ययनसूत्र [50] गौतम ! चारों ओर घोर अग्नियाँ प्रज्वलित हो रही हैं, जो शरीरधारी जीवों को जलाती रहती हैं, आपने उन्हें कैसे बुझाया ? 51. महामेहप्पसूयाओ गिज्झ वारि जलुत्तमं / सिंचामि सययं देहं सित्ता नो व डहन्ति मे // [51] (गणधर गौतम)--महामेघ से उत्पन्न सब जलों में उत्तम जल लेकर मैं उसका निरन्तर सिंचन करता हूँ। इसी कारण सिंचन-शान्त की गई अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती। 52. अग्गी य इइ के वृत्ता? केसी गोयममब्बवी। __ केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी // [52] (केशी कुमारश्रमण-) "वे अग्नियाँ कौन-सी हैं ?—केशी ने गौतम से पूछा / केशी के यह पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा 53. कसाया अग्गिणो वुत्ता सुय-सोल-तवो जलं // __ सुयधाराभिहया सन्ता भिन्ना हुन डहन्ति मे / / [53] (गणधर गौतम)—कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) ही अग्नियाँ कही गई हैं। श्रुत, शील और तप जल है / श्रुत—(शील-तप) रूप जलधारा से शान्त और नष्ट हुईं अग्नियाँ मुझे नहीं जलातीं। विवेचन-महामेहप्पसूयाओ-महामेघ से प्रसूत, अर्थात् महामेघ के समान जिनप्रवचन से उत्पन्न श्रुत, शील और तपरूप जल से मैं कषायाग्नि को सींचकर शान्त करता हूँ।' सातवाँ प्रश्नोत्तर : मनोनिग्रह के सम्बन्ध में 54. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसो इमो। - अन्नो वि संसओ मज्झतं मे कहसु गोयमा ! // [54] (केशी श्रमण)---गौतम ! आपकी प्रज्ञा प्रशस्त है / आपने मेरा यह संशय मिटा दिया, किन्तु मेरा एक और सन्देह है, उसके सम्बन्ध में भी मुझे कहें। ... 55. अयं साहसियो भीमो दुवस्सो परिधावई / जंसि गोयम ! आरूढो कहं तेण न हीरसि ? / / [55] यह साहसिक, भयंकर, दुष्ट घोड़ा इधर-उधर चारों ओर दौड़ रहा है। गौतम ! आप उस पर आरूढ़ हैं, (फिर भी) वह आपको उन्मार्ग पर क्यों नहीं ले जाता ? . 56. पधावन्तं .. निगिण्हामि सुयरस्सीसमाहियं / - न मे गच्छइ उम्मग्गं मग्गं च पडिवज्जई॥ [56] (गणधर गौतम)-दौड़ते हुए उस घोड़े का मैं श्रुत-रश्मि (शास्त्रज्ञानरूपी लगाम) से निग्रह करता हूँ, जिससे वह मुझे उन्मार्ग पर नहीं ले जाता, अपितु सन्मार्ग पर ही चलता है। 1. (क) बृहद्वृत्ति, म. रा. कोष भा. 3, पृ 964 (ख) उत्तरा, प्रियदशिनीटीका भा. 3, पृ. 941 Jain Education International www.jainelibrary.org. For Private & Personal Use Only