________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमीय] 45. अन्तोहियय-संभूया लया चिटुइ गोयमा ! / फलेइ विसभक्खीणि सा उ उद्धरिया कहं ? / [45] हे गौतम ! हृदय के अन्दर उत्पन्न एक लता रही हुई है, जो भक्षण करने पर विषतुल्य फल देती है / आपने उस (विषबेल) को कैसे उखाड़ा ? 46. तं लयं सव्वसो छित्ता उद्धरित्ता समूलियं / विहरामि जहानायं मुक्को मि विसभक्खणं / / [46] (गणधर गौतम)-उस लता को सर्वथा काट कर एवं जड़ से (समूल) उखाड़ कर मैं (सर्वज्ञोक्त) नीति के अनुसार विचरण करता हूँ। अतः मैं उसके विषफल खाने से मुक्त हूँ। 47. लया य इइ का वुत्ता? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमम्बवी / [47] (केशी कुमारश्रमण)---केशी ने गौतम से पूछा 'वह लता आप किसे कहते हैं ?' केशी के इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा 48. भवतण्हा लया वृत्ता भीमा भीमफलोदया। तमुद्धरित्तु जहानायं विहरामि महामुणी ! // [48] (गणधर गौतम)-भवतृष्णा (सांसारिक तृष्णा--लालसा) को ही भयंकर लता कहा गया है। उसमें भयंकर विपाक वाले फल लगते हैं / हे महामुने ! मैं उसे मूल से उखाड़ कर (शास्त्रोक्त) नीति के अनुसार विचरण करता हूँ। विवेचन--अंतोहिययसंभूया: वास्तव में तृष्णारूपी लता मनुष्य के हृदय के भीतर पैदा होती है और जब वह फल देती है तो वे फल विषाक्त होते हैं; क्योंकि तीव्र तृष्णा परिवार में या समाज में विषम परिणाम लाती है, इसलिए तृष्णापरायण मनुष्य को उसके विषले फल भोगने पड़ते हैं। भवतण्हा : -संसारविषयक तृष्णा-लोभ प्रकृति ही लता है।' छठा प्रश्नोत्तर : कषायाग्नि बुझाने के सम्बन्ध में 49. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसपो इमो। अन्नो वि संसओ मज्झतं मे कहसु गोयमा ! // [46] (केशी कुमारश्रमण) हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है / आपने मेरे इस संशय को . मिटाया है / एक दूसरा संशय भी मेरे मन में है, गौतम ! उस विषय में भी आप मुझे बतायो। 50. संपज्जलिया घोरा अग्गो चिट्ठइ गोयमा! / जे डहन्ति सरीरस्था कहं विज्झाविया तुमे ? // 1. बृहदवृत्ति, अभिधान रा. कोष भा. 3, पृ. 962 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org