________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमीय] [ 395 हजारों शत्रु : कौन?-(१) मूल में क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय हैं। सामान्य जीव और चौवीस दण्डकवर्ती जीव, इन 25 के साथ क्रोधादि प्रत्येक को गुणा करने पर प्रत्येक कषाय के 100, और चारों कषाओं के प्रत्येक चार-चार भेद मिलकर 400 भेद होते हैं / क्रोधादि प्रत्येक कषाय अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के भेद से 4-4 प्रकार के हैं / यों 16 कषायों को 25 से गुणा करने पर 400 भेद होते हैं। (2) अन्य प्रकार से भी क्रोधादि प्रत्येक कषाय के चार-चार भेद होते हैं-(१) प्राभोगनिर्वतित, (2) अनाभोगनिर्वतित, (3) उपशान्त (अनुदयावस्थ) और (4) अनुपशान्त (उदयावलिकाप्रविष्ट), इन 444 =16 का पूर्वोक्त 25 के साथ गुणा करने से 400 भेद क्रोधादि चारों कषाओं के होते है। (3) तीसरे प्रकार से भी क्रोधादि कषायों के प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं। यथा-(१) प्रात्मप्रतिष्ठित (स्वनिमित्तक), (2) परप्रतिष्ठित (परनिमित्तक), (3) तदुभयप्रतिष्ठित (स्वपरनिमित्तक) और (4) अप्रतिष्ठित (निराश्रित), इस प्रकार इन 444 = 16 कषायों का पूर्वोक्त 25 के साथ गुणा करने पर 400 भेद हो जाते हैं। (4) चौथा प्रकार--क्रोधादि प्रत्येक कषाय का क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि, इन चारों के साथ गणा करने से 444=16 भेद चारों कषायों के हए / इन 16 का पूर्वोक्त 25 के साथ गुणा करने पर कुल 400 भेद होते हैं। (5) कारण का कार्य में उपचार करने से कषाओं के प्रत्येक के 6-6 भेद और होते हैं। यथा--(१) चय, (2) उपचय, (3) बन्धन, (4) वेदना, (5) उदीरणा और (6) निर्जरा। इन 6 भेदों को भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल (तीन काल) के साथ गुणा करने पर 18 भेद हो जाते हैं। इन 18 ही भेदों को एक जीव तथा अनेक जीवों की अपेक्षा, दो के साथ गुणा करने से 36 भेद होते हैं / इनको क्रोधादि चारों कषायों के साथ गुणा करने पर 144 भेद होते हैं / इनको पूर्वोक्त 25 से गुणित करने पर कुल 3600 भेद कषायों के हुए / इन 3600 में पहले के 1600 भेदों को और मिलाने पर चारों कषायों के कुल 5200 भेद हो जाते हैं। पांच इन्द्रियों के 23 विषय और 240 विकार होते हैं / इस प्रकार इन्द्रियरूप शत्रुओं के 5+23+240 = 268 भेद हुए तथा 5200 कषायों के भेदों के साथ 268 इन्द्रियों के एवं एक सर्वप्रधान शत्रु मन के भेद को मिलाने पर कुल शत्रुओं की संख्या 5466 हुई तथा हास्यादि 6 के प्रत्येक के 4-4 भेद होने से कुल 24 भेद हुए। इनमें स्त्री-पुरुष-नपुसकवेद मिलाने से नोकषायों के कुल 27 भेद होते हैं। पिछले 5466 में 27 को मिलाने से 5466 भेद शत्रुओं के हुए तथा शत्रु शब्द से मिथ्यात्व, अवत आदि तथा ज्ञानावरणीयादि कर्म एवं रागद्वेषाादि भी लिये जा सकते हैं / इसीलिए मूलसूत्र में 'अनेकसहस्र शत्रु' बताए गए हैं / ' चतुर्थ प्रश्नोत्तर : पाशबन्धनों को तोड़ने के सम्बन्ध में 36. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मझं तं मे कहसु गोयमा ! // [36] (केशी कुमारश्रमण) हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा समीचीन है, (क्योंकि) आपने मेरा यह संशय मिटा दिया; (किन्तु) मेरा एक और भी सन्देह है / गौतम ! उस विषय में मुझे कहें। 1. वह', पृ. 921 से 928 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org