________________ 394] [उत्तराध्ययनसूत्र [34] हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया। मेरा एक और भी संशय है। गौतम ! उस सम्बन्ध में भी मुझे कहिए / / 35. अणेगाणं सहस्साणं मझे चिट्ठसि गोयमा! / ते य ते अहिगच्छन्ति कहं ते निज्जिया तुमे ? // [35] गौतम ! अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच में आप खड़े हो / वे आपको जीतने के लिए (आपकी योर) दौड़ते हैं। (फिर भी) आपने उन शत्रुओं को कैसे जीत लिया ? ___36. एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस / दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं / / [36] (गणधर गौतम)--एक को जीतने से पांच जीत लिए गए और पांच को जीतने पर दस जीत लिए गए / दसों को जीत कर मैंने सब शत्रुओं को जीत लिया। 37. सत्तू य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। तओ केसि बुवंतं तु गोयमो इणमम्बबी॥ [37] (केशी कुमारश्रमण)---गौतम ! आपने (1-5-10) शत्रु किन्हें कहा है ?-इस प्रकार के शी ने गौतम से पूछा / केशी के यह पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा 38. एगप्पा अजिए सत्तू कसाया इन्दियाणि य / ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणो ! // [38] (गणधर गौतम)--हे मुनिवर ! एक न जीता हुआ अपना प्रात्मा (मन या जीव) ही शत्रु है / कषाय (चार) और इन्द्रियाँ (पांच, नहीं जीतने पर) शत्रु हैं / उन्हें (दसों को) जीत कर मैं (शास्त्रोक्त) नीति के अनुसार (इन शत्रुओं के बीच में रहता हुआ भी) (अप्रतिबद्ध) विहार करता हूँ। विवेचन-हजारों शत्रु और उनके बीच में खड़े गौतमस्वामी--जब तक केवलज्ञान नहीं उत्पन्न हो जाता, तब तक अान्तरिक शत्रु परास्त नहीं होते। इसीलिए केशोश्रमण गौतमस्वामी से पूछ रहे हैं कि ऐसी स्थिति में प्राप पर चारों ओर से हजारों शत्रु हमला करने के लिए दौड़ रहे हैं, फिर भी आपके चेहरे पर उन पर विजय के प्रशमादि चिह्न दिखाई दे रहे हैं, इससे मालूम होता है, आपने उन शत्रुओं पर विजय पा ली है। अतः प्रश्न है कि आपने उन शत्रुओं को कैसे जीता।' दसों को जीतने से सर्वशत्रुओं पर विजय कैसे ?--जैसा कि गौतमस्वामी ने कहा थाएक आत्मा (मन या जीव) को जीत लेने से उसके अधीन जो क्रोधादि 4 कषाय हैं, वे जोते गए और मन सहित इन पांचों को जीतने पर जो पांच इन्द्रियाँ मन के अधीन हैं, वे जीत ली जाती हैं। ये सभी मिल कर दस होते हैं, इन दस को जीत लेने पर इनका समस्त परिवार, जो हजारों की संख्या में है, जीत लिया जाता है / यही गौतम के कथन का प्राशय है / 1. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 919 2. वही, पृ. 920 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org