________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमीय] हो जाता है, किन्तु यहाँ मुक्तिरूप कार्य में किसी तीर्थंकर को भेद अभीष्ट नहीं है, फिर कारण में भेद क्यों?' समाधान-जिस तीर्थंकर के काल में जो उचित था, उन्होंने अपने केवलज्ञान के प्रकाश में भलीभांति जान कर उस-उस धर्मसाधन (साधुवेष तथा चिह्न सम्बन्धी वस्त्र तथा अन्य उपकरणों) को रखने की अनुमति दी। प्राशय यह है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य ऋजुजड़ अोर वक्रजड़ होते हैं, यदि उनके लिए रंगीन वस्त्र धारण करने की प्राज्ञा दे दी जाती तो वे ऋजुजड़ एवं वक्रजड़ होने के कारण वस्त्रों को रंगने लग जाते, इसीलिए प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकरों ने वस्त्र रंगने या रंगीन वस्त्र पहनने का निषेध करके केवल श्वेत और वह भी परिमित वस्त्र पहनने की प्राज्ञा दी है / मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शिष्य ऋजुप्राज्ञ होते हैं, इसलिए उन्होंने रंगीन वस्त्र धारण करने की आज्ञा प्रदान की है। ___ व्यवहार और निश्चय से मोक्ष-साधन–निश्चयनय की दृष्टि से तो मोक्ष के वास्तविक साधन सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र हैं। इस विषय में दोनों तीर्थकर एकमत हैं, किन्तु निश्चय से सम्यग्दर्शनादि किसमें हैं, किसमें नहीं हैं, इसकी प्रतीति साधारणजन को नहीं होती। इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लेना आवश्यक है। साधु का वेष तथा प्रतीकचिह्न रजोहरण-पात्रादि तथा साध्वाचारसम्बन्धी बाह्य क्रियाकाण्ड आदि ये सब व्यवहार हैं। इसलिए कहा गया है—'लोक में लिंग (वेष, चिह्न आदि) का प्रयोजन है।' प्राशय यह है कि तीर्थंकरों ने अपने-अ यूग में देशकाल, पात्र आदि देख कर नाना प्रकार के उपकरणों का विधान किया है, अथवा वर्षाकल्प आदि का विधान किया है / व्यवहारनय से मोक्ष के साधनरूप में वेष प्रावश्यक है, निश्चयनय से नहीं। साधुवेष के तीन मुख्य प्रयोजन-शास्त्रकार ने साधुवेष के तीन मुख्य प्रयोजन यहाँ बताए है-(१) लोक (गृहस्थवर्ग) की प्रतीति के लिए, क्योंकि साधुवेष तथा उसके केशलोच आदि अाचार को देख कर लोगों को प्रतीति हो जाती हैं कि ये साधु हैं, ये नहीं, अन्यथा पाखण्डी लोग भी अपनी पूजा आदि के लिए हम भी साधु हैं, महाव्रती हैं, यों कहने लगेंगे। ऐसा होने पर सच्चे साधुओं-- महावतियों के प्रति अप्रतीति हो जाएगी। इसलिए नाना-प्रकार के उपकरणों का विधान है / (2) यात्रा-संयमनिर्वाह के लिए भी साधुवेष आवश्यक है / (3) ग्रहणार्थ-~~-अर्थात् कदाचित् चित्त में विप्लव उत्पन्न होने पर या परीषह उत्पन्न होने से संयम में अरति होने पर 'मैं साधु हूँ, मैंने साधु का वेष पहना है, मैं ऐसा अकृत्य कैसे कर सकता हूँ' इस प्रकार के ज्ञान (ग्रहण) के लिए साधुवेष का प्रयोजन है / कहा भी है--'धम्म रक्खइ वेसो' वेष (साधुवेष) साधुधर्म की रक्षा करता है। तृतीय प्रश्नोत्तर : शत्रुओं पर विजय के सम्बन्ध में 34. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसपो मज्झं तं मे कहसु गोयमा! // 1. (क) बृहद्वृत्ति, अभिधान रा. को. भा. 3, पृ. 962 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 912 2. (क) बृहद्वत्ति, अभि. रा. को. भा. 3, पृ. 962 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3 ,4 .912 3. (क) अभिधान रा. कोष भा. 3, पृ. 962 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 916-917 4. (क) वही, पृ. 915 (ख) अभि. रा. को. भा. 3, पृ. 962 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org