________________ 392] [उत्तराध्ययनसूत्र द्वितीय प्रश्नोत्तर : अचेलक और विशिष्टचेलक धर्म के अन्तर का कारण 28. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झ तं मे फहसु गोयमा ! // [28] (कुमारश्रमण केशो) हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय मिटा दिया, किन्तु गौतम ! मुझे एक और सन्देह है, उसके विषय में भी मुझे कहिए / 29. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिओ बद्धमाणेण पासेण य महाजसा / / [26] यह जो अचेलक धर्म है, वह वर्द्धमान ने बताया है और यह जो सान्तरोत्तर (जो वर्णादि से विशिष्ट एवं बहुमूल्य वस्त्र वाला) धर्म है, वह महायशस्वी पार्श्वनाथ ने बताया है / 30. एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं ? / लिगे दुविहे मेहावि ! कह विप्पच्चओ न ते ? // [30] हे मेधाविन् ! एक ही (मुक्तिरूप) कार्य (-उद्देश्य) से प्रवृत्त इन दोनों (धर्मों) में भेद का कारण क्या है ? दो प्रकार के वेष (लिंग) को देख कर आपको संशय क्यों नहीं होता ? 31. केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो इणमब्बवी / विनाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं // [31] (गौतम गणधर) केशी के इस प्रकार कहने पर गौतम ने यह कहा--(सर्वज्ञों ने) विज्ञान (-केवलज्ञान) से भलीभांति यथोचितरूप से धर्म के साधनों (वेष, चिह्न आदि उपकरणों) को जान कर ही उनकी अनुमति दी है। 32. पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविहविगप्पणं / जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पोयणं / [32] नाना प्रकार के उपकरणों का विकल्पन (विधान) लोगों (जनता) की प्रतीति के लिए . है, संयमयात्रा के निर्वाह के लिए है और मैं साध हुँ'; यथाप्रसंग इस प्रकार के बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग (वेष) का प्रयोजन है। 33. अह भवे पइन्ना उ मोक्खसबभूयसाहणे / नाणं च दंसणं व चरित्तं चेव निच्छए / [33] निश्चयदृष्टि से तो सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष के वास्तविक (सद्भूत) साधन हैं / इस प्रकार का एक-सा सिद्धान्त (प्रतिज्ञा) दोनों तीर्थकरों का है। विवेचन-विसेसे कि नु कारणं : तात्पर्य यह कि मोक्ष रूप साध्य समान होने पर भी दोनों तीर्थंकरों ने अपने-अपने तीर्थ के साधुओं को यह वेषभेद क्यों उपदिष्ट किया? दोनों तीर्थकरों की धर्माचरणव्यवस्था में ऐसे भेद का क्या कारण है ? जब कार्य में अन्तर होता है तो कारण में भी अन्तर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org