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________________ तेईसवां अध्ययन : केशि-गौतमीय] [ 391 26. पुरिमा उज्जुजडा उ वंकजडा य पच्छिमा। ___ मज्झिमा उज्जुपन्ना य तेण धम्मे दुहा कए / [26] प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु (सरल) और जड़ (मन्दमति) होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं, (जबकि) बीच के 22 तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। इसीलिए धर्म के दो प्रकार किये गए हैं। 27. पुरिमाणं दुविसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोझो सुपालो / / [27] प्रथम तीर्थकर के साधुनों द्वारा कल्प-साध्वाचार दुविशोध्य (अत्यन्त कठिनता से निर्मल किया जाता था, अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं द्वारा साध्वाचार (कल्प) का पालन करना कठिन है, किन्तु वीच के 22 तीर्थकरों के साधकों द्वारा कल्प (साध्वाचार) का पालन करना सुकर (सरल) - - A - विवेचन-धर्म का निर्णय प्रज्ञा पर निर्भर केशी कुमारश्रमण ने जब गौतम से दोनों तीर्थकरों के धर्म में अन्तर का कारण पूछा तो उन्होंने कारण का मुलसत्र बता दिया कि 'धर्मतत्त्व का निश्चय प्रज्ञा करती है / ' तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय के साधुनों और भगवान महावीर के साधुओं की प्रज्ञा (सद्-असद्विवेकशालिनी बुद्धि) में महान् अन्तर है / अन्तिम तीर्थकर के साधुनों की बुद्धि वक्रजड़ है, बुद्धि वक्र होने के कारण प्रतिबोध के समय तर्क-वितर्क और विकल्पों का बाहुल्य उसमें होता है। प्रमों के प्राचार व्रतादि) को वह जान-समझ लेती है / उसका पालन करने में कदाग्रही होने से उनकी बुद्धि कुतर्क-कुविकल्पजाल में फंस कर जड़ (वहीं तप्प) हो जाती है। इसीलिए उनके लिए पंचमहावत रूप धर्म बताया गया है। जबकि दूसरे तीर्थंकर से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ तक (मध्यवर्ती बाईस तीर्थकरों) के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं / वे आसानी से साधुधर्म के तत्त्व को ग्रहण भी कर लेते हैं और बुद्धिमत्ता से उसका पालन भी कर लेते हैं। यही कारण है कि भ. पार्श्वनाथ ने उन्हें चातुर्यामरूप धर्म बताया। फिर भी वे परिग्रहत्याग के अन्तर्गत स्त्री के प्रति आसक्ति एवं वासना को या कामवासना को प्राभ्यन्तर परिग्रह समझ कर उसका त्याग करते थे। प्रथम तीर्थंकर के साधु सरल, किन्तु जड़ होते थे, वे साधुधर्म के तत्व को या शिक्षा को कदाचित सरलता से ग्रहण कर लेते, किन्तु जड़बुद्धि होने के कारण उसी धर्मतत्त्व के दूसरे पहलू में गड़बड़ा जाते / इसलिए उनके द्वारा साधुधर्माचार को शुद्ध रख पाना कठिन होता था। तात्पर्य यह है कि धर्मतत्त्व का निश्चय केवल श्रवणमात्र से नहीं होता, अपितु प्रज्ञा से होता है / जिसकी जैसी प्रज्ञा होती है, वह तदनुसार धर्मतत्त्व का निश्चय करता है। भगवान् महावीर के युग में अधिकांश साधकों की बुद्धि प्रायः वक्रजड़ होने से ही उन्होंने पंचमहाव्रतरूप धर्म बताया है। जबकि भ. पार्श्वनाथ के साधुओं की बुद्धि ऋजुप्राज्ञ होने से चार महावत कहने से ही काम चल गया। 1. (क) उत्तरा. बृहत्ति , पत्र 502 (ख) अभिधानराजेन्द्रकोश भा. 3 'गोतमकेसिज्ज' शब्द, प्र. 961 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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