________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमीय] [389 17. पलालं फासुयं तत्थ पंचमं कुसतणाणि य / गोयमस्स निसेज्जाए खिप्पं संपणामए / [17] गौतम को बैठने के लिए उन्होंने तत्काल प्रासुक पयाल (चार प्रकार के अनाजों के पराल-घास) तथा पांचवाँ कुश-तृण समर्पित किया (प्रदान किया) / 18. केसी कुमार-समणे गोयमे य महायसे / उभओ निसण्णा सोहन्ति चन्द-सूर-समप्पभा // [18] कुमारश्रमण केशी और महायशस्वी गौतम दोनों (वहाँ) बैठे हुए चन्द्र और सूर्य के समान (प्रभासम्पन्न) सुशोभित हो रहे थे। 19. समागया बहू तत्थ पासण्डा कोउगा मिगा। गिहत्थाणं अणेगाओ .साहस्सीओ समागया / [16] वहाँ कौतुहल की दृष्टि से अनेक अबोधजन, अन्य धर्म-सम्प्रदायों के बहत-से पाषण्डपरिव्राजक पाए और अनेक सहस्र गृहस्थ भी आ पहुंचे थे। 20. देव-दाणव-गन्धव्वा जक्ख-रक्खस-किन्नरा। __ अदिस्साणं च भूयाणं आसी तत्थ समागमो॥ [20] देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहाँ अद्भुत समागम (मेला-सा) हो गया। विवेचन-पडिरूवन्नू : प्रतिरूपज्ञ—जो यथोचित विनयव्यवहार को जानता है, वह / ' जेठं कुलमविक्खंतो-पार्श्वनाथ भगवान् का कुल (अर्थात् सन्तान) पहले होने से ज्येष्ठ-- वृद्ध है, इसका विचार करके गौतमस्वामी ने अपनी ओर से केशी कुमारश्रमण से मिलने की पहल की और तिन्दुक वन में जहाँ केशी श्रमण विराजमान थे, वहाँ आ गए। पलालं फासुयं०-साधुओं के बिछाने योग्य प्रासुक (अचित्त और एषणीय) पलाल (अनाज को कूट कर उसके दाने निकाल लेने के बाद बचा हुआ घास-तृण) प्रचवनसारोद्धार के अनुसार पांच प्रकार के हैं-(१) शाली (कलमशाली प्रादि विशिष्ट चावलों) का पलाल, (2) ब्रीहिक (साठी चावल आदि) का पलाल, (3) कोद्रव (कोदों धान्य) का पलाल, (4) रालक (कंग या कांगणी) का पलाल और (5) अरण्यतृण (-श्यामाक-सांवा चावल आदि) का पलाल / उत्तराध्ययन में पांचवाँ कुश का तृण (घास) माना गया है। 1. 'प्रतिरूपो यथोचितबिनयः, तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः / ' -बहत्ति , पत्र 500 2. .....""ज्येष्ठं कुलमपेक्ष्यमाणः, ज्येष्ठं-वृद्ध प्रथमभवनात् पार्श्वनाथस्य, कुलं-सन्तानं विचारयत इत्यर्थः / --वही, पत्र 500 3. तणपणगं पन्नत्तं जिणेहि कम्मदगंठिमहणेहि। साली वीही कोदव, रालया रण्णे तणाई च // इति वचनात् चत्वारि पलालानि साधुप्रस्तरणयोग्यानि / पंचमं तु दर्भादि प्रासुकं तृणं। -प्रवचनसारोद्धार गा. 675, बृहद्वत्ति, पत्र 501 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org