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________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशि-गौतमीय] पंचसिक्खिओ : पंचमहावत स्थापना का रहस्य-(१) पंचशिक्षित, (महावीर ने)-पंचमहाव्रतों के द्वारा शिक्षित प्रकाशित किया, अथवा (2) पंचशिक्षिक-पांच शिक्षानों में होने वालापंचशिक्षिक अर्थात् पंचमहाव्रतात्मक / पांच महाव्रत ये हैं—(१) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अचौर्य, (4) ब्रह्मचर्य और 5) अपरिग्रह / मालम होता है, पार्श्वनाथ भगवान के मोक्षगमन के पश्चात् युगपरिवर्तन के साथ कुछ कुतर्क उठे होंगे कि स्त्री को विधिवत् परिग्रहीत किये बिना भी उसकी प्रार्थना पर उसकी रजामंदी से यदि समागम किया जाए तो क्या हानि है ? अपरिगृहीता से समागम का तो निषेध है ही नहीं ? सूत्रकृतांगसूत्र में भी तोन गाथाएँ ऐसी मिलती हैं, जिनमें ऐसी ही कुयुक्तियों सहित एक मिथ्या मान्यता प्रस्तुत की गई है। सूत्रकृतांग में इन्हें पार्श्वस्थ और वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने इन्हें 'स्वयूथिक' भी बताया है। इन सब कुतर्को, कुयुक्तियों और मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करने हेतु भ. महावीर ने 'ब्रह्मवर्य' को पृथक् चतुर्थ महावत के रूप में स्थान दिया।' अचेलगो य जो धम्मो-(१) अचेलक-वह धर्म-साधना, जिसमें बिलकुल ही वस्त्र न रखा जाता हो अथवा (2) अचेलक-जिसमें अल्प मूल्य वाले, जीर्णप्राय एवं साधारण--प्रमाणोपेत श्वेतवस्त्र रखे जाते हो। 'अ' का अर्थ अभाव भी है और अल्प भी / जैसे—'अनुदरा कन्या' का अर्थबिना पेट वाली कन्या नहीं, अपितु अल्प-कृश उदर वाली कन्या होता है। आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में साधना के इन दोनों रूपों का उल्लेख है / विष्णुपुराण में भी जैन मुनियों के निर्वस्त्र और सवस्त्र, इन दोनों रूपों का उल्लेख मिलता है / प्रस्तुत में भी 'अचेलक' शब्द के द्वारा इन दोनों अर्थों को ध्वनित किया गया है / यह अचेलकधर्म भ. महावीर द्वारा प्ररूपित है। जो इमो संतरुत्तरो: तीन अर्थ यह सान्तरोत्तर धर्म भ. पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित है। इसमें 'सान्तर' और 'उत्तर'ये दो शब्द हैं। जिनके तीन अर्थ विभिन्न भागम वत्तियों में मिलते हैं(१) बृहद्वृत्तिकार के अनुसार----सान्तर का अर्थ-विशिष्ट अन्तर यानी प्रधान सहित है और उत्तर का अर्थ है-नाना वर्ण के बहुमूल्य और प्रलम्ब वस्त्र से सहित, (2) आचारांगसूत्र की वृत्ति के अनुसार-सान्तर का अर्थ है—विभिन्न अवसरों पर तथा उत्तर का अर्थ है-प्रावरणीय / तात्पर्य यह है कि मुनि अपनी आत्मशक्ति को तोलने के लिए कभी वस्त्र का उपयोग करता है और कभी शीतादि की आशंका से केवल पास में रखता है। (3) अोधनियुक्तिवत्ति, कल्पसूत्रचूणि आदि में वर्षा आदि प्रसंगों में सूती वस्त्र को भीतर और ऊपर में ऊनी वस्त्र ओढ़ कर भिक्षा आदि के लिए जाने वाला / 1. (क) 'बहिद्धाणाओ वेरमणं-बहिस्ताद् आदानविरमणं / ' (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 499 (ग) नो अपरिग्गहियाए इत्थीए, जेश होई परिभोगो। ता तस्विरई इच्चन प्रबंभविरइ त्ति पन्नाणं // -कल्पसमर्थनम गा.१५ (घ) सूत्रकृतांग 1, 3, 4 / 10-11-12 / 2. (क) अचेलं मानोपेतं धवलं जीर्णप्रायं, अल्पमूल्यं वस्त्र धारणीयमिति बर्द्धमानस्वामिना प्रोक्तम, असत इव चेलं यत्र स अचेलः, अचेल एव अचेलकः, यत् वस्त्रं सदपि असदिव तद्धार्यमित्यर्थः / / (ख) “दिग्वाससामयं धर्मो, धर्मोऽयं बहुवाससाम् / ' -विष्णुपुराण अंश 3, अध्याय 18, श्लोक 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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