________________ 386] [उत्तराध्ययनसूत्र 13. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। एगकज्ज--पवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं? // [13] (वर्द्ध मान-महावीर द्वारा प्रतिपादित) यह जो अचेलकधर्म है और यह जो (भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्ररूपित) सान्तरोत्तर धर्म है, एक ही कार्य (मुक्तिरूप कार्य) में प्रवृत्त हुए इन दोनों में विशेष भेद का क्या कारण है ? विवेचन---अल्लीणा-(१) आलीन-अात्मा में लीन, (2) अलीन--मन-वचन-कायगुप्तियों से युक्त या गुप्त / ' दोनों के शिष्यसंघों में चिन्तन क्यों और कब उठा?-दोनों के शिप्यवृन्द जब भिक्षाचर्या आदि के लिए गमनागमन करते थे, तब एक दूसरे के वेष, क्रियाकलाप और प्राचार-विचार को देख कर उनके मन में विचार उठे, शंकाएँ उत्पन्न हुई कि हम दोनों के धर्म-प्रवर्तकों (तीर्थंकरों) का उद्देश्य तो एक ही है मुक्ति प्राप्त करना। फिर क्या कारण है कि हम दोनों के द्वारा गृहीत महाव्रतों में अन्तर है ? अर्थात् हमारे तीर्थंकर (भ. वर्धमान) ने पांच महाव्रत बताए हैं और इनके तीर्थकर (भ. पार्श्वनाथ) ने चातुर्याम (चार महाव्रत) हो बताए हैं ? और फिर इनके वेष और हमारे वेष में भी अन्तर क्यों है ? 2 आयारधम्मपणिही : विशेषार्थ-प्राचार का अर्थ है-आचरण अर्थात्-वेषधारण आदि बाह्यक्रियाकलाप, वही धर्म है, क्योंकि वह भी आत्मशुद्धि या ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विकास का साधन बनता है, अथवा सुगति में प्रात्मा को पहुँचाता है, इसलिए धर्म है। प्रणिधि का अर्थ हैव्यवस्थापन / समग्र पंक्ति का अर्थ हुा-बाह्यक्रियाकलापरूप धर्म की व्यवस्था / चाउज्जामो य जो धम्मो-चातुर्यामरूप (चार महाव्रतवाला) साधुधर्म जिसे महामुनि पार्श्वनाथ ने बताया है / चातुर्याम धर्म इस प्रकार है-(१) अहिंसा, (2) सत्य, (3) चौर्यत्याग और (4) बहिद्धादानत्याग। भगवान् पार्श्वनाथ ने ब्रह्मचर्यमहाव्रत को परिग्रह (बाह्य वस्तुओं के आदानग्रहण) के त्याग (विरमण) में इसलिए समाविष्ट कर दिया था कि उन्होंने 'मैथुन' को परिग्रह के अन्तर्गत माना था / स्त्री को परिगृहीत किये बिना मैथुन कैसे होगा? इसीलिए शब्दकोष में 'पत्नी' को 'परिग्रह' भी कहा गया है / इस दृष्टि से पार्श्वनाथ तीर्थंकर ने साधु के लिए ब्रह्मचर्य को अलग से महाव्रत न मानकर अपरिग्रहमहाव्रत में ही समाविष्ट कर दिया था। 1. (क) उत्तरा, (अनुवाद, विवेचन, मुनि नथमलजी) भा. 1, पृ. 304 (ख) 'अलीनौ मन-वचन-कायगुप्तिष्वाश्रितो'। - बृहद्वृत्ति, पत्र 499 2. ........"भिक्षाचर्यादौ गमनागमनं कुर्वतां शिष्यसंधानां परस्परावलोकनात् विचार: समुत्पन्नः / ' ___ --उत्तरा. प्रियशनी भा. 3, पृ.८९४ 3. प्राचारो वेषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलापः, स एव धर्मः, तस्य व्यवस्थापनम-ग्राचारधर्मप्रणिधिः / / ---वृहदवत्ति, पत्र 499 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org