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________________ 378] [उत्तराष्पयनसूत्र असंभंता-राजीमती मन में आश्वस्त हो गई कि यह कुलीन है, इसलिए बलात् अकार्य में प्रवृत्त नहीं होगा, इस अभिप्राय से वह घबराई नहीं।' धिरत्थु तेऽ जसोकामी-(१) हे अपयश के कामी ! दुराचार की वांच्छा होने के कारण तुम्हारे पौरुष को धिक्कार है या (2) हे कामिन् भोगाभिलाषी ! महाकुल में जन्म होने से प्राप्त यश को धिक्कार है। जीवियकारणा-असंयमी जीवन जीने के निमित्त से अथवा भोगवासनामय जीवन जीने के हेतु / वंतं इच्छसि आवेउ-तुम दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् भी त्यागे हुए भोगों को पुनः भोगने को आतुर हो रहे हो। दोनों के कुल का निर्देश-राजीमती ने अपने आपको भोजराजकुल की और रथनेमि को अन्धकवृष्णिकुल का बताया है, इस प्रकार कुल का स्मरण करा कर अकार्य में प्रवृत्त होने से रोका है। मा कुले गंधणा होमो-सर्प की दो जातियाँ होती हैं—-गन्धन और अगन्धन / गन्धनकुल का सर्प किसी को डस लेने के बाद यदि मंत्रबल से बुलाया जाता है, तो वह पाता है और अपने उगले हुए विष को पुन: चूस कर पी लेता है, किन्तु अगन्धनकुल का सर्प मंत्रबल से प्राता जरूर है, किन्तु वह मरना स्वीकार कर लेता है, मगर उगले हुए विष को पुनः चूस कर नहीं पीता। विवेचन -- सुभासियं-सुभाषित-ऐसा सुभाषित जो संवेगजनक था।" अंकुसेण जहा नागो-जैसे अंकुश से हाथी पुनः यथास्थिति में आ जाता है / इस विषय में प्राचीन प्राचार्यों ने नूपुरपण्डित का पाख्यान प्रस्तुत किया है-किसी राजा ने नूपुरपण्डित का आख्यान पढ़ा / उसे पढ़ते ही रुष्ट होकर उसने रानी, महावत और हाथी को मारने का विचार कर लिया / राजा ने इन तीनों को एक टूटे हुए पर्वतशिखर पर चढ़ा दिया और महावत को आदेश दिया कि इस हाथी को यहाँ से नीचे धकेल दो। निरुपाय महावत ने ज्यों ही हाथी को प्रेरणा दी कि हाथी क्रमश: अपने तीनों पैर आकाश की अोर उठा कर सिर्फ एक पैर से खड़ा हो गया, फिर भी राजा का रोष नहीं मिटा / नागरिकों को जब राजा के इस अकृत्य का पता चला तो उन्होंने राजा से प्रार्थना की महाराज ! चिन्तामणि के समान इस दुर्लभ हाथी को क्यों मरवा रहे हैं ? बेचारे इस पशु का क्या अपराध है ? इस पर राजा ने महावत से पूछा-क्या हाथी को वापस 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 494 2. (क) धि गस्तु ते-तव पौरुषमिति गम्यते, अयश:कामिन्निव अयश:कामिन ! दुराचारवांछितया; यद्वा ते-तव यशो--महाकूलसंभवोद्भुतं धिगस्त्विति सम्बन्ध: / कामिन --भोगाभिलाषिन ! -बहदवत्ति, पत्र 495 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 495 4. .... ."अहम्..... भोजराजस्य उग्रसेनस्य, त्वं चासि अन्धकवष्णे : कुले जात इत्युभयत्र शेषः / ..... -बृहद्वति, पत्र 495 5. बृहद्वृत्ति पत्र, 496 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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