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________________ . 374] [उत्तराध्ययनसूत्र इधर नेमिनाथ भगवान् दीक्षित होने के बाद 54 दिन तक छद्मस्थ अवस्था में अनेक ग्रामों में विचरण करते रहे और फिर रैवताचल पर्वत पर आए / वहाँ प्रभु तेले का तप करके शुक्लध्यान में मग्न हो गए / उस समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। सभी इन्द्र अपने-अपने देवगणों सहित वहाँ आए / मनोहर समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मदेशना दी / प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुमा जान कर बलभद्र, श्रीकृष्ण, राजीमती, दशाह आदि यादवगण तथा अन्य साधारण जन रैवतक पर्वत पर पहुँचे / वन्दन करके यथायोग्य स्थान पर बैठकर धर्मदेशना सुनी / अनेक राजाओं, साधारण जनों तथा महिलाओं ने प्रतिबुद्ध होकर प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। अनेकों ने श्रावक व्रत अंगीकार किये। तत्पश्चात् रथनेमि ने भी विरक्त होकर प्रभु से दीक्षा ली तथा राजीमती ने भी अनेक कन्याओं सहित दीक्षा ग्रहण की।' नोहासा निराणंदा सोगेण उ समुत्थया-राजीमती की हँसी (प्रसन्नता), खुशी एवं प्रानन्द समाप्त हो गया, वह शोक से स्तब्ध हो गई। सेयं पवहां ममराजीमती का प्राशय यह है कि अब तो मेरे लिए प्रव्रज्या ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है, जिससे कि मैं फिर अन्य जन्म में भी इस तरह दुःखी न होऊँ / तत्पश्चात् विरक्त राजीमती तब तक घर में ही तप करती रही, जब तक भगवान् अन्यत्र विहार करके पुन: वहाँ (रैवतकगिरि पर) नहीं पा गए / भगवान् को केवलज्ञान होते ही उनकी देशना सुनकर अधिक वैराग्यवती होकर वह प्रवजित हो गई। कुच्च-फणग-पसाहिए--कूर्च का अर्थ है-गूढ़ और उलझे हुए केशों को अगल-अलग करने ला बांस से निर्मित विशेष कंधा और फणक का अर्थ भी एक प्रकार का कंघा है, इनसे राजीमती के बाल संवारे हुए थे। ववस्सिया-श्रमणधर्म की आराधना करने के लिए कृतसंकल्प (-कटिबद्ध)।" राजीमती द्वारा भग्नचित्त रथनेमि का संयम में स्थिरीकरण 33. गिरि रेवययं जन्ती वासेणुल्ला उ अन्तरा। वासन्ते अन्धयारंमि अन्तो लयणस्स साठिया / / [33] वह (साध्वी राजीमती प्रभु के दर्शन-वंदनार्थ एक बार) रैवतकगिरि पर जा रही 1. (क) उत्तरा.(गुजराती अनुवाद, जै.ध.प्र.सभा, भावनगर से प्रकाशित)पृ. 149, 151 से 155 तक का सारांश (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 773 से 778 तथा 787 से 792 तक का सारांश (ग) बृहद्वत्ति, पत्र 492-493 2. वही, पत्र 493 3. श्रेयः अतिशयप्रशस्यं 'प्रवजितु'-प्रव्रज्यां प्रतिपत्तु मम, येनाऽत्यजन्मन्यपि नवं दुःखभागिनी भवेयम् इति भावः / इत्थं चासौ तावदवस्थिता, यावदन्यत्र प्रविहृत्य तत्रैव भगवानाजगाम / तत उत्पन्न केवलस्य भगवतो निशम्य देशना विशेषत उत्पन्नवैराग्या.............। --बहत्ति , प. 493 4, 'कचों-मढकेशोन्मोचको वंशमयः, फणक:- केकतकः।' –बृहदवत्ति, पत्र 493 5. व्यवसिता---प्रध्यवसिता सती धर्म विधातुमिति शेषः। -वही, पत्र 493 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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