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________________ बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय] [373 30. अह सा ममरसन्निभे कुच्च---फणग-पसाहिए। सयमेव लुचई केसे धिइमन्ता ववस्सिया // [30] इसके पश्चात् धैर्यवती एवं कृतनिश्चया उस राजीमती ने कूर्च और कंघी से प्रसाधित भ्रमर जैसे काले केशों का अपने हाथों से लुचन किया। 31. वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइन्दियं / ___ संसारसागरं घोरं तर कन्न! लहुं लहुं // [31] वासुदेव ने केशों का लुचन की हुई एवं जितेन्द्रिय राजीमती से कहा---'कन्ये ! तू इस घोर संसारसागर को अतिशीघ्र पार कर।' 32. सा पन्वइया सन्ती पवावेसी तहिं बहुं / सयणं परियणं चेव सोलवन्ता बहुस्सुया // [32] प्रवजित होने के पश्चात् उस शीलवती राजीमती ने बहुश्रुत हो कर उस द्वारका नगरी में (अपने साथ) बहुत-सी स्वजनों और परिजनों की स्त्रियों को प्रवजित किया। विवेचन-तीर्थकर अरिष्टनेमि के विरक्त एवं प्रवजित होने पर राजीमती की दशा पहले तो राजीमती अरिष्टनेमि कुमार को दूल्हे के रूप में प्राते देख अतीव प्रसन्न हुई और सखियों के समक्ष हर्षावेश में प्राकर उनके गुणगान करने लगो। किन्तु ज्यों ही उसको दांयी आँख फड़की, वह अत्यन्त उदास और अधीर होकर बोली-मैं इस अपशकुन से जानती हूँ कि मेरे नाथ यहाँ तक पधारे हैं, फिर भी वे वापस लौट जाएँगे, मेरा पाणिग्रहण नहीं करेंगे। ज्यों ही नेमि कुमार वापस लौटे, राजीमती अत्यन्त शोकातुर एवं मूच्छित होकर गिर पड़ी। सचेतन होते ही वह दुःखभरे उद्गार प्रकट करती हुई विलाप करने और मन ही मन नेमि कुमार को उपालम्भ देने लगी। उसकी सखियों ने बहुत समझाया और अन्य सुन्दर राजकुमारों का वरण करने का आग्रह किया, परन्तु राजीमती ने कहा- मैं स्वप्न में भी दूसरे व्यक्ति का वरण नहीं कर सकती। कुछ ही देर में वह स्वस्थ होकर कहने लगी--'सखियो ! वापस लौट कर वे मुझे संकेत कर गए हैं कि पतिव्रता स्त्री का कर्तव्य पति के मार्ग का अनुसरण करना है। आज मुझे एक स्वप्न पाया था कि कोई पुरुष ऐरावत हाथी पर चढ़कर मेरे घर आया और तत्काल मेरुपर्वत पर चढ़ गया / जाते समय उसने लोगों को चार फल दिये, मुझे भी फल दिया / ' सखियों ने स्वप्न को शुभफलदायक बताया। तत्पश्चात् राजीमती भी नेमिनाथप्रभु का ध्यान करती हुई घर में रही और उग्र तप करने तथा नेमिनाथ भगवान् द्वारा दीक्षा लेने तथा तीर्थस्थापना करने की प्रतीक्षा करने लगी। इधर नेमिनाथ का छोटा भाई रथनेमि राजीमती पर आसक्त था। रथनेमि ने राजीमती को स्वयं को पतिरूप में अंगीकार करने को कहा, परन्तु राजीमती ने स्पष्ट अस्वीकार करते हुए कहा'मैं उनके द्वारा वमन की हुई हूँ। तुम वमन की हुई वस्तु का उपभोग करोगे तो श्वानतुल्य होगे। मैं तुम्हें नहीं चाहती।' इस पर रथनेमि निराश होकर चला गया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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