________________ 372] [उत्तराध्ययनसून के लोकान्तिक देवों ने आकर भगवान् को प्रबोधित किया-'भगवन् ! दीक्षा लेकर तीर्थप्रवर्तन कीजिए।' इसी समय शिवा रानी और समुद्रविजय राजा आँखों से अश्र बहाते हए समझाने लगे--- 'वत्स! यों विवाह का त्याग करने से हमें तथा कृष्ण आदि यादवों को कितना खेद होगा? तेरे लिए उग्रसेन राजा से श्री कृष्ण ने स्वयं जा कर उनकी पुत्री की याचना की थी। वह अब कैसे अपना मुख दिखायेगा ? राजीमती की क्या दिशा होगी? पतिव्रता स्त्री एक बार मन से भी जिसको पतिरूप में वरण कर लेती है, फिर जीवन भर दूसरा पति नहीं करती। अतः हमारे अनुरोध को स्वीकार कर त विवाह कर ले।' भगवान ने कहा-हे पुज्यो! आप यह आग्रह छोड़ दें। प्रियजनों को सदैव हितकार्य में ही प्रेरणा देनी चाहिए। स्त्रीसंग मुमुक्षु के लिए योग्य नहीं है। प्रारम्भ में सुन्दर और परिणाम में दारुण कार्य के लिए कोई भी बुद्धिमान् मुमुक्षु प्रयत्न नहीं करता।' इसके पश्चात् समागत लोकान्तिक देवों ने भी समुद्रविजय आदि दशा) से कहा-'आप सब भाग्यशाली हैं कि आपके कुल में ऐसे महापुरुष पैदा हुए हैं। ये भगवान् दीक्षा ग्रहण करके केवलज्ञान पाकर चिरकाल तक तीर्थप्रवर्तन करके जगत् को आनन्द देने वाले हैं। अतः आप खेद छोड़ कर हर्ष मनाइए।' इस प्रकार देवों के वचन सुनकर सभी हर्षित हुए। भगवान् सहित सभी यादवगण द्वारका आए। भगवान् स्व-भवन में पहुँचे। उसी दिन से दीक्षा का संकल्प कर लिया। सांवत्सरिक दान देने लगे और तत्पश्चात् रैवतक (उज्जयंत) गिरि पर स्थित सहस्राम्रवन में जा कर दीक्षा ग्रहण की। स्वयं पंचमुष्टि लोच किया, आजीवन सामायिकव्रत अंगीकार किया। कृष्ण आदि सभी यादव आशीर्वचन कह कर वहाँ से वापस लौटे।' इसके पश्चात् भगवान् ने केवलज्ञान होने पर तीर्थस्थापना की, आदि वर्णन समझ लेना चाहिए। प्रथम शोकमग्न और तत्पश्चात् प्रवजित राजीमती 28. सोऊण रायकन्ना पश्वज्जं सा जिणस्स उ। ___नीहासा य निराणन्दा सोगेण उ समुच्छिया / [28] (अरिष्टनेमि) जिनेश्वर की प्रव्रज्या को सुन कर राजकन्या (राजीमती) हास्यरहित और प्रानन्दविहीन हो गई। वह शोक से मूच्छित हो गई / 29. राईमई विचिन्तेइ धिरत्थु मम जीवियं / जाऽहं तेण परिच्चत्ता सेयं पव्वइयं मम / / [26] राजीमती ने विचार किया-'धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं उनके (अरिष्टनेमि के) द्वारा परित्यक्त की गई। (अत:) मेरा (अब) प्रवजित होना ही श्रेयस्कर है।' 1. (क) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद, ज.ध. प्र. सभा, भावनगर से प्रकाशित), पत्र 151 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, पृ. 770-771 (ग) बृहदवृत्ति, पत्र 492 : 'इह तु वन्दिकाचार्यः सत्त्वमोचनसमये सारस्वतादिप्रबोधन, भवनगमन-महा दानानन्तरं निष्क्रमणाय पुरीनिर्गममुपवर्णयाम्बभूवेति सूत्रसप्तकार्थः / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org