________________ 370] [उत्तराध्ययनसूत्र महापन्ने-जिसकी प्रज्ञा महान् हो, वह महाप्रज्ञ है, प्राशय यह है कि भगवान् नेमिनाथ में मति, श्रुत और अवधि ज्ञान होने से वे महाप्रज्ञ थे।' - करुणा का स्रोत उमड़ पड़ा-सर्वप्रथम भयभीत एवं अत्यन्त दुःखित प्राणियों को देखते ही उनका करुणाशील हृदय पसीज उठा। फिर उन्होंने मारथि से पूछा और जब यह जाना कि मेरे विवाह के समय पाने वाले अतिथियों को मांसभोज देने के लिए इन पशु-पक्षियों को बन्द किया गया है, तब तो और भी करुणाई हो उठे। अपने लिए इसे अकल्याणकर समझ कर उन्होंने विवाह न करना ही उचित समझा। फलतः उन्हें वहीं संसार से विरक्ति हो गई और वहीं से रथ को लौटा देने तथा बाड़ों और पिंजरों को खोल कर उन पशु-पक्षियों को मुक्त कर देने का संकेत किया। यह कार्य सम्पन्न करते ही पारितोषिक के रूप में समस्त प्राभूषण सारथि को दे दिये। एक शंका : समाधान प्रस्तुत अध्ययन की 10 वी गाथा में विवाह के लिए प्रस्थान करते समय गन्धहस्ती पर आरूढ़ होने का उल्लेख है और आगे 15 वी गाथा में सारथि से पूछने और उसके द्वारा प्रादेशानुकूल कार्य सम्पन्न करने पर पारितोषिक देने के प्रसंग में सारथि का उल्लेख है / इससे अरिष्टनेमि का रथारोहण अनुमित होता है। ऐसा पूर्वापर विरोध क्यों ? बृहद्वत्तिकार ने इसका समाधान करते हुए लिखा है वरयात्रा में चलते समय वे रथारूढ़ हो गए हों, ऐसा अनुमान होता है, इस दृष्टि से 'सारथि' शब्द सार्थक है / अरिष्टनेमि के द्वारा प्रवज्याग्रहण 21. मणपरिणामे य कए देवा य जहोइयं समोइण्णा। ___ सव्विड्ढीए सपरिसा निक्खमणं तस्स काउं जे // [21] (अरिष्टनेमि के द्वारा) मन में (दीक्षा-ग्रहण के) परिणाम (भाव) होते ही उनके यथोचित अभिनिष्क्रमण के लिए देव अपनी समस्त ऋद्धि और परिषद् के साथ पाकर उपस्थित हो गए। 22. देव-मणुस्सपरिवुडो सीयारयणं तओ समारूढो। निक्खमिय बारगाओ रेवययंमि द्विप्रो भगवं / / [22] तदनन्तर देवों और मानवों से परिवृत भगवान् (अरिष्टनेमि) शिविकारत्न (-श्रेष्ठ पालखी) पर आरूढ हुए। द्वारका से निष्क्रमण (चल) कर वे रैवतक (गिरनार) पर्वत पर स्थित हुए। 1. महती प्रज्ञा–प्रक्रमान्मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयात्मिका यस्याऽसौ महाप्रज्ञः / –बुहत्ति , पत्र 491 2. वही, पत्र 491 : न तु निःश्रेयसं कल्याणं परलोके भविष्यति, पापहेतुत्वादस्येति भावः / ... "एवं च विदिताकतेन सारथिना मोचितेष सत्त्वेष पारितोषितोऽसौ। 3. 'सारथि—प्रवर्तयितारं प्रक्रमाद् गन्धहस्तिनो हस्तिपकमिति यावत् / यद्वाऽत एव तदा रथारोहणमनुमीयते इति रथप्रवर्तयितारम् / ' बृहद्वृत्ति, पत्र 492 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org