________________ [उत्तराध्ययनसून दिव्वजुयलपरिहिओ-प्राचीनकाल में दो ही वस्त्र पहने जाते थे-एक अन्तरीय-नीचे पहनने के लिए धोती और एक उत्तरीय --ऊपर प्रोढ़ने के लिए चादर। इसे ही यहाँ 'दिव्ययुगल कहा गया है।' गंधहत्थी : परिचय और स्वरूप-गन्धहस्ती, सब हाथियों से अधिक शक्तिशाली, बुद्धिमान् और निर्भय होता है / इसकी गन्ध से दूसरे हाथियों का मद झरने लगता है और वे डर के मारे भाग जाते हैं / वासुदेव (कृष्ण) का यह ज्येष्ठ पट्टहस्ती था। ___ कयकोउयमंगलो : तात्पर्य-विवाह से पूर्व वर के ललाट से मूसलस्पर्श कराना इत्यादि कौतुक और दधि, अक्षत, दूब, चन्दन आदि द्रव्यों का उपयोग करना मंगल कहलाता था / सव्वोसहीहि०-बृहद्वृत्ति के अनुसार–जया, विजया, ऋद्धि, वृद्धि आदि समस्त औषधियों से अरिष्टनेमि को नहलाया गया। दसारचक्केण--समुद्रविजय, अक्षोभ्य, स्तिमित, सागर, हिमवान, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव; ये दस भाई, जो यादव जाति के थे, इन का समूह दशार (दशाह-चक्र) कहलाता था / यदुप्रमुख ये दश अर्ह अर्थात् पूज्य थे, बड़े थे, इसलिए इन्हें 'दशाह कहा गया / वहिपुगवो वृष्णिकुल में प्रधान श्री अरिष्टनेमि थे। अरिष्टनेमि का कुल 'अन्धकवृष्णि' नाम से प्रसिद्ध था, क्योंकि अन्धक और वृष्णि, ये दो भाई थे। वृष्णि अरिष्टनेमि के पितामह थे। परन्तु पुराणों के अनुसार अन्धकवृष्णि (या अन्धकवृष्टि) एक ही व्यक्ति का नाम है, जो समुद्रविजय के पिता थे। दशवैकालिक सूत्र में तथा इसी अध्ययन की 53 वीं गाथा में नेमिनाथ के कुल को अन्धकवृष्णि कुल बताया गया है / अवरुद्ध प्रार्त पशुपक्षियों को देख कर करुणामग्न अरिष्टनेमि 14. अह सो तत्थ निज्जन्तो दिस्स पाणे भयद्दुए। वाडेहि पंजरेहि च सन्निरुद्ध सुदुक्खिए / [14] तदनन्तर उन्होंने (अरिष्टनेमि ने) वहाँ (मण्डप के समीप) जाते हुए बाड़ों और पिंजरों में बन्द किये गए, भयत्रस्त और अतिदुःखित प्राणियों को देखा / 1. (क) उत्तरा. अनुवाद टिप्पण (साध्वी चन्दना), पृ. 440 (ख) दिव्ययुगलमिति प्रस्तावाद् दूष्ययुगलं / -बृहद्वत्ति, पत्र 490 2, (क) वासुदेवस्य सम्बन्धिनमिति गम्यते / ज्येष्ठमेव ज्येष्ठकम् –अतिशयप्रशस्यमतिवृद्ध वा गुणः पट्टहस्तिन मित्यर्थः / (ख) कृतकौतुक मंगल इत्यत्र कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि, मंगलानि च दध्यक्षतदुर्वाचन्दनादीनि / -बृहबृत्ति, पत्र 490 3. सर्वाश्च ता औषधयश्च--जयाविजयद्धिवृद्धयादय: सर्वोषधयस्ताभि: स्नपितः अभिषिक्तः। --वही, पत्र 490 4. (क) 'सारचक्केण ति दशाहचक्रेण यदुसमूहेन / ' - बृहद्वत्ति, पत्र 490 (ख) 'दश च तेहश्चि-पूज्या इति दशा / ' -अन्त कृशांग. 11 वृत्ति 5. (क) वृष्णिपुंगवः यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरिति यावत् / बृहद्वृत्ति, पत्र 490 (ख) दशवकालिक 218 (ग) उत्तराध्ययन अ. 22, गा. 43 (घ) उत्तरपुराण 70 / 92-94 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org