________________ बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय ] विवेचन-वज्रऋषभनाराचसंहनन--संहनन जैनसिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है--अस्थिबन्धन / समस्त जीवों का संहनन 6 कोटि का होता है-(१) वज्रऋषभनाराच, (2) ऋषभनाराच, (3) नाराच, (4) अर्धनाराच, (5) कीलक और (6) असंप्राप्तसृपाटिका। सर्वोत्तम संहनन वज्रऋषभनाराच है, जो उत्तम पुरुषों का होता है / वज्र ऋषभनाराच संहनन वज्र-सा सुदृढ अस्थिबन्धन होता है, जिसमें शरीर के संधि अंगों की दोनों हड्डियाँ परस्पर आंटी लगाए हुए हों, उन पर तीसरी हड्डी का वेष्टन-लपेट हो और चौथी हड्डी की कील उन तीनों को भेद रही हो / यहाँ कीलक के आकार वाली हड्डी का नाम वज्र है, पट्टाकार हड्डी का नाम ऋषभ है और उभयतः मर्कटबन्ध का नाम नाराच है, इनसे शरीर की जो रचना होती है, वह वज्रऋषभनाराच है। समचतुरस्त्रसंस्थान-संस्थान का अर्थ है--शरीर का आकार (ढांचा) / संस्थान भी 6 प्रकार के होते हैं-(१) समचतुरस्र, (2) न्यग्रोधपरिमण्डल, (3) सादि, (4) वामन, (5) कुब्जक और (6) हुण्डक / पालथी मार कर बैठने पर चारों कोण सम हों तो वह समचतुरस्र नामक सर्वश्रेष्ठ संस्थान अरिष्टनेमि के लिए केशव द्वारा राजीमती की याचना को पृष्ठभूमि-कथा इस प्रकार हैएक बार अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण की आयुधशाला में जा पहुँचे। उन्होंने धनुष और गदा को अनायास ही उठा लिया और जब पाञ्चजन्य शंख फूका तब तो चारों ओर तहलका मच गया। श्रीकृष्ण भी झुब्ध हो उठे और जब उन्होंने यह सुना कि यह शंख अरिष्टनेमि ने बजाया है, तब प्राशंकित हो उठे कि कहीं नेमिकुमार हमारा राज्य न ले लें। बलभद्र ने इस शंका का निवारण भी किया, फिर भी कृष्ण शंकाशील बने रहे। उन्होंने एक दिन नेमिकुमार से शौर्यपरीक्षण के लिए युद्ध करने का प्रस्ताव रखा, किन्तु नेमिकुमार ने कहा—बलपरीक्षण तो बाहुयुद्ध से भी हो सकता है। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की भुजा को उन्होंने अनायास ही नमा दिया, किन्तु श्रीकृष्ण नेमिकुमार के भुजदण्ड को नहीं नमा सके / इसके पश्चात् एक दिन श्रीसमुद्रविजय ने श्रीकृष्ण से नेमिकुमार को विवाह के लिए सहमत करने को कहा / उन्होंने अपनी पटरानियों से वसन्तोत्सव के दिन विवाह के लिए मनाने को कहा / पाठों ही पटरानियों ने क्रमश: नेमिकुमार को विभिन्न युक्तियों से विवाह करने के लिए अनुरोध किया, मगर वे मौन रहे / फिर बलदेव और श्रीकृष्ण ने भी विवाह कर लेने का प्राग्रह किया। अरिष्टनेमि के मंदहास्य को सबने विवाह की स्वीकृति का लक्षण माना। श्रीसमुद्रविजय भी यह शुभ संवाद सुन कर आनन्दित हो उठे / इसके पश्चात् श्रीकृष्ण स्वयं उग्रसेन के पास गए और राजीमती का अरिष्टनेमि के साथ विवाह कर देने की प्रार्थना की। श्री उग्रसेन को यह जान कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्रीकृष्ण को याचना इस शर्त पर स्वीकार कर ली कि यदि अरिष्टनेमि कुमार मेरे यहाँ पधारें तो मैं अपनी कन्या का उनके साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण करना स्वीकार करता हूँ। उग्रसेन की स्वीकृति पाते ही श्रीकृष्ण ने क्रौष्ठिकी नैमित्तिक से विवाह का महर्त निकलवाया। विवाहमहत निश्चित होते ही श्रीकृष्ण ने सारी तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी, जिसका वर्णन मूलपाठ में है / 2 / / 1. (क) प्रज्ञापना. पद 23 / 2, सूत्र 293 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भाग. 3, पृ. 737 2. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, . 739 से 756 तक का सारांश (ख) बहवत्ति, पत्र 490 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org