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________________ बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय] [365 दोनों में जो सोरियपुर का उल्लेख है, वह समुद्रविजय और वसुदेव दोनों का एक ही जगह निवास था, यह बताने के लिए है।' वसुदेव आदि का उल्लेख प्रस्तुत अध्ययन में क्यों ? यहाँ रथनेमि के सम्बन्धित वक्तव्यता में वह किसके तीर्थ में हुआ ? इस प्रसंग से भगवान् अरिष्टनेमि का तथा उनके विवाह आदि में उपयोगी एवं उपकारी केशव (श्रीकृष्ण) आदि का उनके पूर्व उत्पन्न होने से पहले उल्लेख किया गया है / रायलक्खण संजुए : तीन अर्थ प्रस्तुत दो गाथानों में 'राजलक्षणों से युक्त' शब्द प्रथम 'वसुदेव' का विशेषण है और द्वितीय समुद्रविजय का / प्रथम राजलक्षणसम्पन्न के दो अर्थ हैं--(१) सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार राजा के हाथ और चरणतल में चक्र, स्वस्तिक, अंकुश यादि लक्षण (चिह्न) होते हैं तथा (2) गुणों की दृष्टि से राजा के लक्षण हैं:-धैर्य, गाम्भीर्य, औदार्य, त्याग, सत्य, शौर्य आदि / वसुदेव इन दोनों प्रकार के राजलक्षणों से युक्त थे। द्वितीय राजलक्षणसम्पन्न के प्रथम दो अर्थों के अतिरिक्त एक अर्थ और भी है-छत्र, चामर, सिंहासन आदि राजचिह्नों से सुशोभित / ' दमीसरे दमन अर्थात् उपशमन करने वालों के ईश्वर अर्थात् नायक-अग्रणी / अरिष्टनेमि कुमार कौमार्यावस्था से ही अत्यन्त उपशान्त तथा जितेन्द्रिय थे / कुमारावस्था में ही उन्होंने कामवासना का दमन कर लिया था / लक्खणस्सरसंजुओ-(१) स्वर के सुस्वरत्व, गाम्भीर्य, सौन्दर्य प्रादि लक्षणों से युक्त, (2) अथवा (मध्यमपदलोपी समास से) उक्त लक्षणोपलक्षित स्वर से संयुक्त / अट्ठसहस्सलक्खणधरो-वृषभ, सिंह, श्रीवत्स, शंख, चक्र, गज, समुद्र आदि एक हजार आठ शुभसूचक चक्रादि लक्षणों का धारक / तीर्थकर और चक्रवर्ती के 1008 लक्षण होते हैं। राजीमती के साथ वाग्दान, बरात के साथ प्रस्थान 6. वज्जरिसहसंघयणो समचउरंसो झसोयरो। तस्स राईमई कन्नं भज्जं जायइ केसवो। [6] वह वज्र-ऋषभ-नाराचसंहनन और समचतुरस्र संस्थान वाले थे। मछली के उदर जैसा उनका (कोमल) उदर था / राजीमती कन्या को उसकी भार्या बनाने के लिए वासुदेव (केशव) ने (राजा उग्रसेन से) उसकी याचना की ! 1. (क) जैनतीर्थों का इतिहास (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 489 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 489 3. (क) राजेब राजा तस्य लक्षणानि चक्रस्वस्तिकांकुशादीनि, त्यागसत्यशौर्यादीनि वा तः संयतो-युक्तः / (ख) इह च राजलक्षणसंयुत इत्यत्र राजलक्षणानि-छत्रचामरसिहासनादीन्यपि गृह्यन्ते / -बृहदवत्ति, पत्र 489 4. दमिनः-उपशमिनस्तेषामीश्वर:-अत्यन्तोपशमवत्तया नायको दमीश्वरः / कौमार एवं क्षतमारवीर्यत्वात्तस्य / —वही, पत्र 489 5. वही, पत्र 489 6. वही, पत्र 489 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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