________________ इक्कीसवाँ अध्ययन : समुद्रपालीय] [361 उपसंहार 24. दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के / तरित्ता समुदं व महाभवोघं समुद्दपाले अपुणागमं गए // —त्ति बेमि // ___ [24] समुद्रपाल मुनि पुण्य और पाप (शुभ-अशुभ) दोनों ही प्रकार के कर्मों का क्षय करके, (संयम में) निरंगन (---निश्चल) और सब प्रकार से विमुक्त होकर समुद्र के समान विशाल संसारप्रवाह (महाभवौघ) को तैर कर अपुनरागमस्थान (-मोक्ष) में गए। —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-दुविहं-दो भेद वाला-घाती कर्म और अधाती कर्म, इस प्रकार द्विविध, अथवा पुण्य-पाप---शुभाशुभ रूप द्विविध कर्म / निरंगणे-(१) निरंगन-संयम के प्रति निश्चल-शैलेशीअवस्था प्राप्त / अथवा (2) निरंजन-कर्मसंगरहित / समुदं व महाभवोहं समुद्र के समान अतिदुस्तर, महान्, भवौघ देवादिभवसमूह को तैर कर। // समुद्रपालीय : इक्कीसवाँ अध्ययन समाप्त // 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 487-488 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org