________________ 360] [उत्तराध्ययनसूत्र पहीणसंथवे-संस्तव अर्थात् गृहस्थों के साथ अति-परिचय, दो प्रकार का है-(१) पूर्वपश्चात्-संस्तवरूप अथवा (2) बचन-संवासरूप / जो संस्तव से रहित है, वह प्रहीणसंस्तव है / ' पहाणवं : प्रधानवान-प्रधान का अर्थ यहाँ संयम है, क्योंकि वह मुक्ति का हेतु है / इसलिए प्रधानवान् का अर्थ संयमी–संयमशील होता है। परमपरहि-परमार्थपदैः---परमार्थ का अर्थ प्रधान पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष है, वह जिन पदोंसाधनों या मार्गों से प्राप्त किया जाता है, वे परमार्थपद हैं—सम्यग्दर्शनादि / उनमें जो स्थित है / छिन्नसोए--(१) छिन्नशोक-शोकरहित, (2) छिन्नस्रोत--मिथ्यादर्शनादि कर्मबन्धन-स्रोत जिसके छिन्न हो गए हैं, वह / / निरोवलेवाई- 'निरुपलेपानि विशेषण 'लयनानि' शब्द का है। बृहद्वत्तिकार ने इसके दो दृष्टियों से अर्थ किए हैं.-द्रव्यत: लेपादि कर्म से रहित और भावतः ग्रासक्तिरूप उपलेप से रहित / / सन्नाणनाणोवगए--सद्ज्ञानज्ञानोपगत : दो अर्थ—(१) सद्ज्ञान यहाँ श्रुतज्ञान अर्थ में है। अर्थ हुआ--श्रुतज्ञान से यथार्थ क्रियाकलाप के ज्ञान से उपगत—युक्त / (2) अथवा सन्नानाज्ञानोपगतसंगत्याग, पर्यायधर्म, अभीष्ट तत्त्वावबोध, इत्यादि अनेक प्रकार (अनेकरूप) शुभ ज्ञानों से उपगत युक्त। अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा—शीतोष्णादि परीषह पाएँ, उस समय किसी प्रकार का विलाप या प्रलाप किये विना, कर्कश शब्द कहे विना अथवा निमित्त को कोसे विना या किसी को गाली या अपशब्द कहे विना सहन करे / ' आयगुत्ते—प्रात्मगुप्त—कछुए की तरह अपने समस्त अंगों को सिकोड़ कर परीषह सहन करे। प्रस्तुत गाथा (16) में परीषहसहन करने का उपाय बताया गया है। 1. ....."संस्तवश्च पूर्वपश्चात्संस्तवरूपो वचनसंवासरूपी वा गृहिभिः सह / -बृहद्वृत्ति, पत्र 487 2. .....प्रधान: स च संयमो मुक्तिहेतुत्वात्, स यस्यास्त्यसौ प्रधानवान् / --बृहद्वत्ति, पत्र 487 3. परमः प्रधानोऽर्थः पुरुषार्थो-परमार्थो-मोक्षः, स पद्यते-गम्यते यस्तानि परमार्थपदानि-सम्यग्दर्शनादीनि, तेषु तिष्ठति-अविराधकतयाऽऽस्ते। --बहवत्ति, पत्र 487 4. “छिन्नसोय त्ति छिन्नशोकः, छिन्नानि वा स्रोतांसीव स्रोतांसि-मिथ्यादर्शनादीनि येनाऽसौ छिन्नस्रोताः / " -वही, पत्र 487 5. निरोवलेवाई ति–निरुपलेपानि-अभिष्वंगरूपोपलेपजितानि भावतो, द्रव्यतस्तु तदर्थ नोपलिप्तानि / -वही, पत्र 487 6. सदज्ञान मिह श्रतज्ञानं, तेन ज्ञानं-अवगमः, प्रक्रमात यथावत क्रियाकलापस्य तेनोपगतो—युक्तो, सदज्ञानज्ञानोपगतः, सन्ति शोभनानि नानेत्यनेकरूपाणि ज्ञानानि-संगत्याग-पर्यायधर्माभिमचितत्त्वावबोधात्मकानि पगतः-सन्नानाज्ञानोपगतः / -बृहदवत्ति, पत्र 487 7. वृहद्वृत्ति, पत्र 486, . 8. 'प्रात्मना गुप्तः प्रात्मगुप्त:-कूर्मवत् संकुचितसर्वागः / ' -वहीं, पत्र 486 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org