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________________ इक्कीसवां अध्ययन : समुद्रपालीय] [359 दयाणुकंपी : अर्थ-हितोपदेशादि दानात्मिका अथवा प्राणि-रक्षणरूपा दया से अनुकम्पनशील। खंतिखमे : क्षान्तिक्षम अशक्ति से नहीं, किन्तु क्षमा से जो विरोधियों या प्रतिकूल व्यक्तियों आदि द्वारा कहे गए दुर्वचनों-अपशब्दों आदि को सहता है।' अभिप्राय-गाथा 12 वी द्वारा मूलगुणों के प्राचरण का तथा गाथा 13 वी से 23 वीं तक - विविध पहलुओं से मूलगुण रक्षणोपाय का प्रतिपादन किया गया है / 2 रठे : राष्ट्र-प्रस्तुत प्रसंग में 'राष्ट्र' का अर्थ 'मण्डल' किया गया है। अर्थात्-कुछ गांवों का समूह, जिसे वर्तमान में तहसील' या 'जिला' कहते हैं / बलाबलं जाणिय अप्पणो य—अपने बलाबल अर्थात् सहिष्णुता-असहिष्णुता को जान कर, जिससे अपने संयमयोग की हानि न हो। वयजोग सुच्चा–असभ्य अथवा दु.खोत्पादक वचनप्रयोग सुन कर / ' न सव्व सम्वत्थऽभिरोयएजा : दो व्याख्या बृहद्वृत्ति के अनुसार-(१) जो कुछ भी देखे, उसकी अभिलाषा न करे, अथवा (2) एक अवसर पर पुष्टालम्बनतः (विशेष कारणवश अपवादरूप में) जिसका सेवन किया, उसका सर्वत्र सेवन करने की इच्छा न करे / न याऽविपूयं गरहं च संजए : दो व्याख्या-(१) पूजा और गहरे में भी अभिरुचि न रखे / यहाँ पूजा का अर्थ अपनी पूजा-प्रतिष्ठा, सत्कार प्रादि है तथा गर्दा का अर्थ-परनिन्दा से है। कई लोग गर्दा का अर्थ:-प्रात्मगर्दा या हीनभावना करके उससे कर्मक्षय मानते हैं, उनके मत का खण्डन करने हेतु यहाँ गर्दा परनिन्दा रूप अर्थ में ही लेना चाहिए / (2) 15 वी गाथा की तरह 20 वीं गाथा में भी यही पंक्ति अंकित है, वहाँ दूसरी तरह से बृहद्वृत्तिकार ने अर्थ किया है. अपनी पूजा के प्रति उन्नत और अपनी गर्दा के प्रति अवनत न होने वाला मुनि पूजा और गर्दा में लिप्त (आसक्त) न हो / बृहद्वृत्ति में इन दोनों पंक्तियों के अभिप्राय में अन्तर बताया गया है कि पहले अभिरुचि का निषेध बताया गया था, यहाँ संग (आसक्ति) का / 1. बृहदवृत्ति, पत्र 485 : "सर्वेषु अशेषेष प्राणिषु दयया-हितोपदेशादिदानात्मिकया रक्षणरूपया वाऽनुकम्पनशीलो दयानुकम्पी / ....."क्षान्त्या, न त्वशक्तया क्षमते प्रत्यनीकायुदीरितदुबंचनादिकं सहते इति क्षान्तिक्षमः / " 2. वही, पत्र 485-486 3. 'राष्ट्र-मण्डले।' -वही, पत्र 486 4. वही, पत्र 486 5. वाग्योगम्-अर्थाद-दुःखोत्पादकम् , सोच्चा-श्रुत्वा। -वही, पत्र 486 6. न सर्व वस्तु सर्वत्र स्थानेऽभ्यरोचयत, न यथादृष्टाभिलाषुकोऽभूदिति भावः / यदि वा यदेकत्र पुष्टा-लम्बनत: सेवितं, न तत् सर्वम्-अभिमताहारादि सर्वत्राभिलषितवान् / 7 ..... "पूर्वत्राभिरुचिनिषेध उक्तः, इह तु संगस्येति पूर्वस्माद् विशेषः / ' -बृहद्वत्ति, पत्र 486-487 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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