________________ 358] [उत्तराध्ययनसून 21. अरइरइसहे पहीणसंथवे रिए आयहिए पहाणवं / परमट्ठपएहि चिट्ठई छिन्नसोए अममे अकिंचणे // [21] जो परति और रति को सहन करता है, संसारी जनों के परिचय (संसर्ग) से दूर रहता है, विरत है, आत्महित का साधक है, प्रधान (संयम) वान् है, शोकरहित है, ममत्त्व-रहित है, अकिंचन है, वह परमार्थ पदों (-सम्यग्दर्शन आदि साधनों) में स्थित होता है। 22. विवित्तलयणाइ भएज्ज ताई निरोवलेवाइ असंथडाई। ____ इसीहि चिण्णाइ महायसेहिं काएण फासेज्ज परीसहाई // [22] त्राता (प्राणियों का रक्षक) साधु महान यशस्वी ऋषियों द्वारा प्रासेवित, लेपादि कर्म से रहित, असंसृत (-बीज आदि से रहित), विविक्त (एकान्त) लयनों (स्थानों) का सेवन करे और शरीर से परोषहों को सहन करे। 23. सन्नाणनाणोवगए महेसी अणुत्तरं चरिउ धम्मसंचयं / अणुत्तरे नाणधरे जसंसी ओभासई सूरिए वऽन्तलिक्खे // [23] अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) धर्मसंचय का आचरण करके सद्ज्ञान (श्रुतज्ञान) से तत्त्व को उपलब्ध करने वाला अनुत्तर ज्ञानधारी यशस्वी महर्षि मुनिवर अन्तरिक्ष में सूर्य के समान धर्मसंघ में प्रकाशमान होता है। विवेचन--शास्त्रकार द्वारा उपदेश अथवा आत्मानुशासन?—गाथा 11 से 23 तक प्रस्तुत 13 गाथाओं में शास्त्रकार ने जो महर्षि समुद्रपाल के सन्दर्भ में मुनिधर्म का निरूपण किया है, वह क्या है ? इसके लिए बृहद्वृत्तिकार सूचित करते हैं कि शास्त्रीय सम्पादन के न्याय से ये गाथाएँ साधुधर्म को बताने के लिए उपदेश रूप हैं, अथवा महर्षि समुद्रपाल द्वारा स्वयमेव अपनी आत्मा को लक्ष्य करके शिक्षा (अनुशासन) दी गई है। यथा-हे प्रात्मन् ! पूर्ण भयावह संग का परित्याग कर प्रव्रज्या धर्म में अभिरुचि कर; इत्यादि / ' जहित्तु संग-संग अर्थात्-स्वजनादि प्रतिबन्ध, जो कि महाक्लेशकर है तथा महामोह, जो कि कृष्णलेश्या के परिणाम का हेतू होने से कृष्णरूप एवं भयानक है। इन दोनों को छोड़ कर...............२ परियायधम्म-- 'पर्याय' का अर्थ यहाँ प्रसंगवश 'प्रव्रज्यापर्याय' किया गया है। उसमें जो धर्म है, अर्थात्-मुनिदीक्षावस्था में जो धर्म पालनीय है, उसमें अभिरुचि कर / यहाँ 'व्रत' से मूलगुणरूप पंच महाव्रत और 'शील' से उत्तरगुणरूप पिण्डविशुद्धि एवं परीषहसहन आदि साधुजीवन में पालनीय श्रुतचारित्ररूप धर्म का ग्रहण किया गया है। 1. ......."उपदेशरूपतां च तन्त्रन्यायेन ख्यापयितुमित्थं प्रयोगः, यद्वाऽऽत्मानमेवायमनुशास्ति—यथा-हे पात्मन् ! संगं त्यक्त्वा प्रव्रज्याधर्ममभिरोचयेद् भवान् / एवमुत्तरक्रियास्वपि यथासम्भवं भावनीयम् / " -बृहद्वृत्ति, पत्र 485 2. वही, पत्र 485 3. “परियाय ति प्रक्रमात प्रव्रज्यापर्यायस्तत्र धर्मः पर्यायधर्मः / " --बृहद्वत्ति, पत्र 485 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org