________________ इक्कीसवां अध्ययन : समुद्रपालीय | [357 विहार करे / सिंह को भांति, भयोत्पादक शब्द सुन कर संत्रस्त न हो / अशुभ (या असभ्य) वचनयोग सुन कर बदले में असभ्य वचन न कहे / 15. उवेहमाणो उ परिव्वएज्जा पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा। न सव्व सव्वत्थऽभिरोयएज्जा न यावि पूर्य गरहं च संजए / [15] संयमी साधक प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे। वह प्रिय और अप्रिय (अर्थात्-अनुकूल और प्रतिकूल) सब (परीषहों) को सहन करे / सर्वत्र सबकी अभिलाषा न करे तथा पूजा और गरे दोनों पर भी ध्यान न दे / 16. अणेगछन्दा इह माणवेहि जे भावओ संपगरेइ भिक्खू / भयभेरवा तत्थ उइन्ति भीमा दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा / / _ [16] इस संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के छन्द (अभिप्राय) होते हैं / (कर्मवशगत) भिक्षु भी जिन्हें (अभिप्रायों को) भाव (मन) से करता है / अतः उसमें (साधुजीवन में) भयोत्पादक होने से भयानक तथा अतिरौद्र (भीम) देवसम्बन्धी, मनुष्यसम्बन्धी और तियंञ्चसम्बन्धी उपसर्गो को सहन करे। 17. परोसहा दुव्विसहा अणेगे सीयन्ति जत्था बहुकायरा नरा / ते तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू संगामसीसे इव नागराया // [17] अनेक दुर्विषह (दुःख से सहे जा सकें, ऐसे) परीषह प्राप्त होने पर बहुत से कायर मनुष्य खिन्न हो जाते हैं। किन्तु भिक्ष परीषह प्राप्त होने पर संग्राम में प्रागे रहने वाले नागराज (हाथी) की तरह व्यथित (क्षुब्ध) न हो। 18. सोओसिणा दंसमसा य फासा आयंका विविहा फुसन्ति देहं / अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा रयाई खेवेज्ज पुरेकडाई॥ [18] शीत, उष्ण, दंश-मशक तथा तृणस्पर्श और अन्य विविध प्रकार के अातंक जब साधु के शरीर को स्पर्श करें, तब वह कुत्सित शब्द न करते हुए समभाव से उन्हें सहन करे और पूर्वकृत कमों (रजों) का क्षय करे / 19. पहाय रागं च तहेव दोसं मोहं च भिक्खू सययं वियकखणो। मेरु व्व वाएण अकम्पमाणो परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा // [16] विचक्षण साधु राग और द्वेष को तथा मोह को निरन्तर छोड़ कर वायु से अकम्पित रहने वाले मेरुपर्वत के समान प्रात्मगुप्त बन कर परीषहों को सहन करे / 20. अणुन्नए नावणए महेसी न यावि पूयं गरहं च संजए। स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए निव्वाणमग्गं विरए उवेइ / [20] पूजा-प्रतिष्ठा में (गर्व से) उत्तुंग और गहीं में अधोमुख न होने वाला संयमी महर्षि पूजा और गहीं में आसक्त न हो / वह समभावी विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाणमार्ग के निकट पहुँच जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org