________________ 356] [उत्तराध्ययनसूत्र और उसे सारे नगर में घुमाया जाता तथा उसको मृत्युदण्ड दिये जाने की घोषणा की जाती थी। इस प्रकार उसे वधस्थल की ओर ले जाया जाता था।' बज्झग-(१) बाह्यगं-नगर के बहिर्वर्ती वध्यप्रदेश की ओर ले जाते हुए, अथवा (2) वध्यगम् वध्यभूमि की ओर ले जाते हुए। संविग्गो-संवेग अर्थात् मुक्ति की अभिलाषा को प्राप्त-संविग्न / भगवं : तात्पर्य-'भगवान' विशेषण समुद्रपाल के लिए यहाँ प्रयुक्त है, उसका यहाँ प्रासंगिक अर्थ है-माहात्म्यवान् / भगवान् शब्द माहात्म्य अर्थ में भी प्रयुक्त देखा गया है। महर्षि समुद्रपाल द्वारा आत्मा को स्वयं स्फुरित मुनिधर्मशिक्षा 11. जहित्तु संगं च महाकिलेसं महन्तमोहं कसिणं भयावहं / परियायधम्म चऽभिरोयएज्जा क्याणि सोलाणि परीसहे य / / [11] दीक्षित होने पर मुनि महाक्लेशकारी महामोह और पूर्ण भयजनक संग (आसक्ति) का त्याग करके पर्यायधर्म (-चारित्रधर्म) में, व्रत में, शील में और परीषहों में (परीषहों को समभावपूर्वक सहने में) निरत रहे। 12. अहिंस सच्चं च अतेणगं च तत्तो य बम्भं अपरिग्गहं च / पडिवज्जिया यंच महन्वयाणि चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ // [12] तत्त्वज्ञ मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, इन पंच महाव्रतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे / 13. सव्वेहिं भूहि दयाणुकम्पी खन्तिक्खमे संजय बम्भयारी। सावज्जजोगं परिवज्जयन्तो चरिज्ज भिक्खू सुसमाहिइन्दिए / [13] इन्द्रियों को सम्यक रूप से वश करने वाला भिक्षु-(साधु) समस्त प्राणियों के प्रति दया से अनुकम्पाशील रहे, क्षमा से दुर्वचनादि सहन करने वाला हो, संयत (संयमशील) एवं ब्रह्मचर्यधारी हो / वह सावद्ययोग (-पापयुक्त प्रवृत्तियों) का परित्याग करता हुआ विचरण करे / 14. कालेण कालं विहरेज्ज र? बलाबलं जाणिय अप्पणो य / _____ सीहो व सद्दे ण न संतसेज्जा वयजोग सुच्चा न असम्भमाहु // [14] साधु यथायोग्य कालानुसार अपने बलाबल (शक्ति-अशक्ति) को जानकर राष्ट्रों में 1. (क) वधमर्हति वध्यस्तस्य मण्डनानि--- रक्तचन्दनकरवीरादीनि तैः शोभा--तत्कालोचितपरभागलक्षणा यस्यासौ बध्यमण्डनशोभाकरस्तं वध्यम् / -बृहद्वत्ति, पत्र 483 (ख) “चोरो रक्तकणवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्तश्च प्रहतबध्यडिण्डिमो राजमार्गण नीयमानः।" -सूत्रकृतांग, शीलांक. वृत्ति 126 पत्र 150 2. "बाह्य नगरबहिर्वत्तिप्रदेशं गच्छतीति बाह्यगस्तम्, कोऽर्थः ? बहिनिष्क्रामन्तं; यद्वा बध्यगम्---इह वध्य शब्देनोपचारात् वध्यभूमिरुता।" -बृहद्वृत्ति, पत्र 483 3. नही, पत्र 483 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org