________________ बीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय] [347 कुहेडविज्जासवदारजीवी-कुहेटक विद्या-मिथ्या, आश्चर्य में डालने वाली मंत्र-तंत्र ज्ञानात्मिका विद्या, जो कि कर्मबन्धन का हेतु होने से प्राश्रवद्वार रूप है, ऐसी जादूगरी विद्या से जीविका चलाने वाला / ' निमित्त-कोहलसंपगाढे-निमित्त कहते हैं—भौम, अन्तरिक्ष आदि, कौतूहल-कौतुकसंतानादि के लिए स्नानादि प्रयोग बताना / इन दोनों में प्रत्यासक्त / / तमंतमेणेव उ से............--अत्यन्त मिथ्यात्व से पाहत होने के कारण घोर अज्ञानान्धकार के कारण वह शीलविहीन द्रव्यसाधु सदा विराधनाजनित दुःख से दुःखी होकर तत्त्वादि के विषय में विपरीत दृष्टि अपनाता है।' अग्गीव सब्वभक्खी-जैसे अग्नि गीली-सूखी सभी लकड़ियों को अपना भक्ष्य बना लेती (जला डालती) है, वैसे ही हर परिस्थिति में अनेषणीय ग्रहणशील कुसाधु अप्रासुक आदि सभी पदार्थ खा जाता है। से नाहिई......... पच्छाणुतावेण--वह संयम-सत्यादिविहीन द्रव्यसाधु मृत्यु के समय 'हाय ! मैंने बहुत बुरा किया, पापकर्म किया,' इस रूप में पश्चात्ताप के साथ उक्त तथ्य को जान लेता है / कहावत है---मृत्यु के समय अत्यन्त मंदधर्मी मानव को भी धर्मविषयक रुचि उत्पन्न होती है, किन्तु उस समय सिवाय पश्चात्ताप के वह कुछ कर नहीं सकता। इस वाक्य में यह उपदेश गभित है कि पहले से ही मूढता छोड़ कर दुराचार प्रवृत्ति छोड़ देनी चाहिए। दुहमोवि सेझिज्झइ-जिस साधु के लिए इहलोक और परलोक कुछ भी नहीं है, वह शरीरक्लेश के कारणभूत केशलोच आदि करके केवल कष्ट उठाता है। इसलिए वह इहलोक भी सार्थक नहीं करता और न परलोक ही सार्थक कर पाता है। क्योंकि यह जीवन साधुधर्म के वास्त. विक आचरण से दूर रहा, इसलिए परलोक में कुगति में जाने के कारण उसे शारीरिक एवं मानसिक दुःख भोगना पड़ेगा / इसलिए वह उभयलोकभ्रष्ट होकर इहलौकिक एवं पारलौकिक सम्पत्तिशाली जनों को देख कर मुझ पापभाजन (दुर्भाग्य ग्रस्त) को धिक्कार है जो उभयलोकभ्रष्ट है, इस चिन्ता से क्षीण होता जाता है। ____ कुररोव निरसोया-जैसे मांसलोलुप गीध पक्षिणी मांस का टुकड़ा मुह में लेकर चलती है, तब दूसरे पक्षो उस पर झपटते हैं, इस विपत्ति का प्रतीकार करने में असमर्थ वह पक्षिणी पश्चात्ताप रूप शोक करती है, वैसे ही भोगों के आस्वाद में गद्ध साधु इहलौकिक पारलौकिक अनर्थ प्राप्त होने पर न तो स्वयं की रक्षा कर सकता है, न दूसरों की / इसलिए वह अनाथ बन कर व्यर्थ --- 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 479 2. वही, पत्र 479 3. 'तमस्तमसैव---अतिमिथ्यात्वोपहततया प्रकृष्टाज्ञानेनैव .. .... ... / ' 4. वही, पत्र 479 5. वही, पत्र 479 -वही, पत्र 479 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org