________________ 346] [उत्तराध्ययनसूत्र सीयंति-निर्ग्रन्थधर्म के पालन में शिथिल हो जाते हैं, कतराते हैं। जो स्वयं निर्ग्रन्थधर्म के पालन में दुःखानुभव करते हैं, वे स्व-पर की रक्षा करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? अतएव उनकी अनाथता स्पष्ट है। आउत्तया-सावधानी। दुगुछणाए : जुगुप्सनायां--उच्चार-प्रस्रवण आदि संयम के प्रति उपयोगशून्य होने से तथा परिष्ठापना जुगुप्सनीय होने से उसे "जुगुप्सना" कहा गया है। वीरजायं मग्ग-वीरों के द्वारा यात अर्थात् ---जिस मार्ग पर वीर पुरुष चलते हैं, वह मार्ग / मुडरुचि-चिरकाल से सिर मुंडाने--अर्थात् केशलोच करने में जिसकी रुचि रही है, जो साधुजीवन के शेष आचार से विमुख रहता है, वह न तो तप करता है और न किसी नियम के पालन में रुचि रखता है। __ चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता-चिरकाल तक लोच आदि से अपने आप को क्लेशित करकेकष्ट देकर। __ अयंतिए कूडकहावणे वा-इसका सामान्य अर्थ होता है-अयंत्रित- अनियमित कूटकापिणवत् / कार्षापण एक सिक्के का नाम है, जो चाँदी का होता था / यहाँ साध्वाचारशून्य निःसार (थोथे) साधु की खोटे सिक्के से उपमा दी गई है / खोटे सिक्के को कोई भी नहीं अपनाता और न उससे व्यवहार चलता है, वह सर्वथा उपेक्षणीय होता है, इसी तरह सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरहित साधु भी गुरु, संघ आदि द्वारा उपेक्षणीय होता है / इसिज्झयं जीविय वहइत्ता (1) ऋषिध्वज अर्थात् मुनिचिह्न-- रजोहरण आदि, उन्हीं को जीविका के लिए लोगों के समक्ष प्रधान रूप से प्रतिपादित करके, अर्थात्-साधु के रजोहरणादि चिह्न होने चाहिए, और बातों में क्या रखा है ? इस प्रकार वेष और चिह्न से जीने वाला / अथवा (2) ऋषिध्वज से असंयमी जीवन का पोषण करके, या (3) निर्वाहोपायरूप जीविका का पोषण करके / एसे व धम्मो विसोववन्नो-कालकूट विष आदि की तरह शब्दादि विषयों से युक्त सुविधावादी धर्म-श्रमणधर्म भी विनाशकारी अर्थात्-दुर्गतिपतन का हेतु होता है / वेयाल इवाविवण्णो---मंत्र आदि से वश में नहीं किया हुआ अनियंत्रित वेताल भी अपने साधक का ध्वंस कर देता है, तद्वत् / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 478 2. अयन्त्रित:-अनियमित: कटकापिणवत्। वा शब्दस्यहोपमार्थत्वात् / यथाऽसौ न केचित् कटतया नियंव्यते, तथैषोऽपि गुरूणामप्यविनीततयोपेक्षणीयत्वात् / -वही, पत्र 478 3. 'ऋषिध्वज-मुनिचिह्न रजोहरणादि, जीवियत्ति-जीविकाय, बहयित्वाइदमेव प्रधानमिति ख्यापनेनो प ह्य; यद्वा 'इसिज्झयंमि'-ऋषिध्वजेन जीवितं-असंयमजीवित, जीविका वा-निर्वहणोपायरूपा बहयित्वेति-पोषयित्वा"" "" -वही, पत्र 478 4. वही, पत्र 478-479 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org