________________ वीसवां अध्ययन : महानिर्गन्थीय] [345 अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता; वह भिक्षु अग्नि के समान सर्वभक्षी होकर पाप कर्म करके यहाँ से मर कर दुर्गति में जाता है। 48. न तं अरी कंठछेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो // [48] उस (पापात्मा साधु) की अपनी दुष्प्रवृत्तिशील दुरात्मा जो अनर्थ करती है, वह (वैसा अनर्थ) गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता। उक्त तथ्य को वह निर्दय (-संयमहीन) मनुष्य मृत्यु के मुख में पहुँचने के समय पश्चात्ताप के साथ जान पाएगा। 49. निरट्टिया नग्गरुई उ तस्स जे उत्तमठं विवज्जासमेइ / इमे वि से नत्थि परे वि लोए दुहनो वि से शिज्जइ तत्थ लोए // [46] जो (द्रव्यसाधु) उत्तमार्थ (अन्तिम समय की आराधना) के विषय में विपरीत दृष्टि रखता है, उसकी श्रामण्य में रुचि व्यर्थ है / उसके लिए न तो यह लोक है और न ही परलोक / दोनों लोकों के प्रयोजन से शून्य होने के कारण वह दोनों लोकों से भ्रष्ट भिक्षु (चिन्ता से) क्षीण हो जाता है। 50. एमेवाहाछन्द-कुसीलरूवे मग्गं विराहेत्तु जिणुत्तमाणं / कुररी विवा मोगरसाणुगिद्धा निरटुसोया परियावमेइ // 50] इसी प्रकार स्वच्छन्द और कुशोलरूप साधु जिनोत्तमों (-जिनेश्वरों) के मार्ग की विराधना करके वैसे ही परिताप को प्राप्त होता है, जैसे कि भोगरसों में गृद्ध होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है। विवेचन--साधकों की अनाथता के प्रकार-प्रस्तुत 38 वीं से 50 वी गाथा तक में अनाथी मुनि द्वारा साधुजीवन अंगीकार करने पर भी सनाथ के बदले 'अनाथ' बनने वाले साधकों का लक्षण दिया गया है—(१) निर्ग्रन्थधर्म को पाकर उसके पालन करने से कतराने वाले, (2) प्रवजित होकर प्रमादवश महाव्रतों का सम्यक् पालन न करने वाले, (3) आत्मनिग्रह न करने वाले, (4) रसों में पासक्त, (5) पच समितियों के पालन में सावधानी न रखने वाले,(६) अहिंसादि महाव्रतों में अस्थिर, (7) तप और नियमों से भ्रष्ट, केवल मुण्डनरुचि, (8) रत्नत्रयशून्य होने से विज्ञों की दृष्टि में मूल्यहीन, (6) कुशीलवेष तथा ऋषिध्वज धारण करके उनसे अपनी जीविका चलाने वाले, (वेषचिह्नजीवी, (10) असंयमी होते हुए भी स्वयं को संयमी कहने वाले, (11) विषयविकारों के साथ मुनिधर्म के आराधक, (12) लक्षणशास्त्र का प्रयोग करने वाले, (13) निमित्तशास्त्र एवं कौतुककार्य में प्रत्यासक्त, (14) जादू के खेल दिखा कर जीविका चलाने वाले, (15) शीलविहीन, विपरीतदृष्टि, मुनिधर्मविराधक असाधुरूप साधु, (16) औद्देशिक आदि अनेषणीय आहार-ग्रहणकर्ता, अग्निवत् सर्वभक्षी साधु, (17) दुष्प्रवृत्तिशील दुरात्मा एवं संयमहीन साधक, (18) अन्तिम समय की आराधना के विषय में विपरीतदृष्टि एवं उभयलोक-प्रयोजन भ्रष्ट साधु और (16) यथाछन्द एवं कुशील तथा जिनमार्गविराधक साधु / ' 1. उत्तरा. मूलपाठ अ. 20, गा. 38 से 50 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org