________________ 344] [उत्तराध्ययनसूत्र मुण्डरुचि रह कर और चिरकाल तक आत्मा को (लोच आदि से) क्लेश दे कर भी संसार का पारगामी नहीं हो पाता। 42. पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे अयन्तिए कूडकहावणे वा। __ राढामणी वेरुलियप्पगासे अमहग्धए होइ जाणएसु // [42] जैसे पोली (खाली) मुट्ठी निस्सार होती है, उसी तरह वह (द्रव्यसाधु रत्नत्रयशून्य होने से) साररहित होता है / अथवा वह खोटे सिक्के (कार्षापण) की तरह अयन्त्रित (अनादरणीय अथवा अप्रमाणित) होता है। क्योंकि वैडर्यमणि की तरह चमकने वाली तुच्छ राढामणि काचमणि के समान वह जानकार परीक्षकों की दृष्टि में मूल्यवान् नहीं होता। 43. कुसीलिंग इह धारइत्ता इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता / ___ असंजए संजयलप्पमाणे विणिघायमागच्छइ से चिरंपि / / [43] जो (साध्वाचारहीन) व्यक्ति कुशीलों (पावस्थादि प्राचारहीनों) का वेष (लिंग) तथा ऋषिध्वज (रजोहरणादि मुनिचिह्न) धारण करके अपनी जीविका चलाता (बढ़ाता) है और असंयमी होते हुए भी अपने आपको संयमी कहता है; वह चिरकाल तक विनिधात (विनाश) को प्राप्त होता है। 44. विसं तु पीयं जह कालकूडं हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं / एसे व धम्मो विसओवषन्नो हणाइ वेयाल इवाविवन्नो / [44] जैसे—पिया हुआ कालकूट विष तथा विपरीतरूप से पकड़ा हुया शस्त्र, स्वयं का घातक होता है और अनियंत्रित वैताल भी विनाशकारी होता है, वैसे ही विषयविकारों से युक्त यह धर्म भी विनाश कर देता है / 45. जे लक्षणं सुविणं पउंजमाणे निमित्त-कोऊहलसंपगाढे / ___ कुहेडविज्जासवदारजीवी न गच्छई सरणं तम्मि काले / [45] जो लक्षणशास्त्र और स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है, जो निमित्तशास्त्र और कौतुक-कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या आश्चर्य उत्पन्न करने वाली कुहेटक विद्याओं (जादूगरों के तमाशों) से पाश्रवद्वार (कर्मबन्धन हेतु) रूप जीविका करता है, वह उस कर्म फल भोग के समय किसी की शरण नहीं पा सकता। 46. तमंतमेणेव उ से असीले सया दुही विप्परियासुवेइ / ___ संधावई नरगतिरिक्खजोणि मोणं विराहेत्तु असाहरूखे // [46] शीलविहीन वह द्रव्यसाधु अपने घोर अज्ञानतमस् के कारण सदा दुःखी हो कर विपरीत दृष्टि को प्राप्त होता है / फलतः असाधुरूप वह साधु मुनिधर्म की विराधना करके नरक और तिर्यञ्चयोनि में सतत आवागमन करता रहता है। 47. उद्देसियं कोयगडं नियागं न मुंचई किचि अणेसणिज्ज / अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ कटु पावं // [47] जो प्रौद्देशिक, क्रीतकृत, नियाग (नित्यपिण्ड) आदि के रूप में थोड़ा-सा भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org