________________ बीसवाँ अध्ययन : महानिग्रंथीय] [341 अणुव्वया-अनुव्रता : कुलानुरूप व्रत-आचार बाली, अर्थात्-पतिव्रता अथवा 'अनुवयाः' रूपान्तर होने से अर्थ होगा--क्य के अनुरूप (वह सभी कार्य स्फूर्ति से करती) थी।' पासामोवि न फिट्टइ-मेरे पास से कभी दूर नहीं होती थी, हटती न थी। अर्थात्--उसका मेरे प्रति इतना अधिक अनुराग या वात्सल्य था / ' अनाथता से सनाथता-प्राप्ति की कथा 31. तओ हं एवमाहंसु दुक्खमा हु पुणो पुणो / वेयणा अणुभविउं जे संसारम्मि अणन्तए / [31] तब मैंने (मन ही मन) इस प्रकार कहा (-सोचा-) कि 'प्राणी को इस अनन्त संसार में अवश्य ही बार-बार दुःसह वेदना का अनुभव करना होता है।' 32. सई च जइ मुच्चेज्जा वेयणा विउला इओ। खन्तो दन्तो निरारम्भो पव्वए अणगारियं // [32] यदि इस विपुल वेदना से एक बार मुक्त हो जाऊँ तो मैं क्षान्त, दान्त और निरारम्भ अनगारता (भावभिक्षुता) में प्रव्रजित हो जाऊँगा। 33. एवं च चिन्तइत्ताणं पसुत्तो मि नराहिवा! / परियट्टन्तीए राईए वेयणा मे खयं गया। [33] हे नरेश! इस प्रकार (मन में) विचार करके मैं सो गया। परिवर्तमान (व्यतीत होती हुई) रात्रि के साथ-साथ मेरी (नेत्र-) वेदना भी नष्ट हो गई। 34. तो कल्ले पभायम्मि प्रापुच्छित्ताण बन्धवे / ___ खन्तो दन्तो निरारम्भो पन्वइओऽणगारियं / / [34] तदन्तर प्रभातकाल में नीरोग होते ही मैं बन्धुजनों से अनुमति लेकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगारधर्म में प्रव्रजित हो गया / 35. ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य / सव्वेसि चेव भूयाणं तसाण थावराण य॥ [35] तब (प्रव्रज्या अंगीकार करने के बाद) मैं अपना और दूसरों का, त्रस और स्थावर सभी प्राणियों का 'नाथ' हो गया। 36. अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। __ अप्पा कामदुहा धेणू अप्पा मे नन्दणं वणं // [36] अपनी आत्मा स्वयं ही वैतरणी नदी है, अपनी प्रात्मा ही कूटशाल्मलि वृक्ष है, आत्मा ही कामदुधा धेनु है और अपनी आत्मा ही नन्दनवन है / 1. "कुलानुरूपं व्रतं--प्राचारोऽस्या अनुक्ता, पतिव्रतेति यावत्, वयोऽनुरूपा वा।" -बृहद्वत्ति, पत्र 476 2. “मत्पाच्चि नापयाति सदा सन्निहितवास्ते, अनेन तस्या अतिवत्सलत्वमाह / " -बहवृत्ति, पत्र 476 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org