________________ 340] [उत्तराध्ययनसूत्र 30. खणं पि मे महाराय ! पासाम्रो वि न फिट्टई / न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाया / [30] वह एक क्षणभर भी मुझ से दूर नहीं हटती थी; फिर भी वह मुझे दुःख से विमुक्त न कर सकी, महाराज ! यह मेरी अनाथता है। विवेचन–अनाथता के कतिपय कारण : मुनि के मुख से-(१) विविध चिकित्सकों ने विविध प्रकार से चिकित्सा को, किन्तु दुःखमुक्त न कर सके, (2) मेरे पिता ने चिकित्सा में पानी की तरह सर्वस्व बहाया, किन्तु वे भी दु:खमुक्त न कर सके, (3) पुत्रदुःखपीड़ित माता भी दुःखमुक्त न कर सकी, (4) छोटे-बड़े भाई भी दुःखमुक्त न कर सके, (5) छोटी-बड़ी बहनें भी दुःखमुक्त न कर सकी, (6) अनुरक्ता एवं पतिव्रता पत्नी भी दुःखमुक्त न कर सकी। अपनी अनाथता के ये कतिपय कारण मुनिवर ने प्रस्तुत किये हैं।' पुराणपुरभेयणी-अपने गुणों से असाधारण होने के कारण पुरातन नगरों से भिन्नता स्थापित करने वाली अर्थात्-प्रमुख नगरी या श्रेष्ठ नगरी (कौशाम्बी नगरी) थी। घोरा परमदारुणा–घोरा-भयंकर, जो दूसरों को भी प्रत्यक्ष दिखाई दे, ऐसी भयोत्पादिनी / परमदारुणा–अतीव दुःखोत्पादिका / उवट्ठिया-(वेदना का प्रतीकार करने के लिए) उद्यत हुए। आयरिया : आचार्या–प्राणाचार्य, वैद्य / सत्थकुसला-(१) शस्त्रकुशल (शल्यचिकित्सा या शस्त्रक्रिया में निपुण चिकित्सक) और (2) शास्त्रकुशल (आयुर्वेदविशारद)। मंतमूलविसारया–मन्त्रों और मूलों-औषधियों-जड़ीबूटियों के विशेषज्ञ / चाउप्पायं-चतुष्पदा---चतुर्भागात्मक चिकित्सा-(१) भिषक्, भेषज, रुग्ण और परिचारक रूप चार चरणों वाली, (2) वमन, विरेचन, मर्दन एवं स्वेदन रूप चतुर्भागात्मक, अथवा (3) अंजन, बन्धन, लेपन और मर्दन रूप चिकित्सा / स्थानांगसूत्र में वैद्यादि चारों चिकित्सा के अंग कहे गए हैं / अपने-अपने शास्त्रों तथा गुरुपरम्परा के अनुसार विविध चिकित्सकों ने चिकित्सा की, किन्तु पीड़ा न मिटा सके। 1. उत्तराध्ययन, अ. 20, मूलपाठ तथा बहवत्ति का सारांश 2. "पुराणपुराणि भिनत्ति--स्वगुण रसाधारणत्वाद् भेदेन व्यवस्थापयति-पुराणपुरभेदिनी।''-वृहद्वृत्ति, पत्र 475 3. घोरा-परेषामपि दृश्यमाना, भयोत्पादनी; परमदारुणा अतीवदुःखोत्पादिका / 4. (क) उपस्थिताः-वेदनाप्रतीकारं प्रत्युद्यताः। -वही, पत्र 475 (ख) प्राचार्या:-प्राणाचार्याः, वैद्या इति यावत्। -वही, पत्र 475 5. (क) “शस्त्रेषु शास्त्रेषु वा कुशलाः शस्त्रकुशलाः शास्त्रकुशलाः वा।" (ख) "चतुष्पदां-भिषग्भैषजातुरप्रतिचारकात्मकचतुर्भागां।" -बृहद्वृत्ति, पत्र 475 (ग) “चउम्बिहा तिगिच्छा पण्णत्ता, तं०-विज्जो, ओसधाई, आउरे, परिचारते / " ---स्थानांग. 4, स्था. 4 // 343 (घ) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, पृ. 591 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org