________________ 342 [उत्सराध्ययनसूत्र V37. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य / अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय-सुपट्टिओ॥ [37] अात्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता (विनाशक) है। सुप्रस्थित(-सत् प्रवृत्ति में स्थित) आत्मा ही अपना मित्र है और दुःस्थित (-दुष्प्रवृत्ति में स्थित) आत्मा ही अपना शत्रु है। विवेचन-अनाथता दूर करने का उपाय प्रस्तुत पांच गाथाओं (31 से 35 तक) में मुनि ने प्रकारान्तर से अनाथता दूर करने का नुस्खा बता दिया है। वह क्रम संक्षेप में इस प्रकार है-(१) अनाथता के मूल कारण का चिन्तन-संसार में प्राणी को बार-बार जन्म-मरणादि का दुःसह दुःखानुभव, (2) अनाथता के मूल कारणभूत दुःख को दूर करने के लिए अनगारधर्म अंगीकार करने का दृढ़ संकल्प, (3) वेदना के मूलकारणभूत जन्ममरणादि दुःख (वेदना रूप) का नाश, (4) सनाथ बनने के लिए प्रव्रज्या-स्वीकार और (5) इसके पश्चात्-स्व-पर का 'नाथ' बनना / ' दुक्खमा : अर्थ-'दुःक्षमा' का अर्थ है-दुःसहा / यह वेदना का विशेषण है। पम्वइए अणगारियं-(१) प्रव्रजन करूगा अर्थात्-घर से प्रव्रज्या के लिए निष्क्रमण करूगा, फिर अनगारता अर्थात् -भावभिक्षुता को अंगीकार करूंगा, अथवा (2) अनगारिता का प्रव्रजन स्वीकार करूगा, जिससे कि संसार का उच्छेदन होने से मूल से ही वेदना उत्पन्न नहीं होगी। कल्ले पभायम्मि : दो अर्थ-(१) कल्य अर्थात् नीरोग होकर प्रभात-प्रातःकाल में / अथवा (2) कल्ये-आगामी कल, चिन्तनादि की अपेक्षा से दूसरे दिन प्रातःकाल में / स्व-पर एवं त्रस-स्थावरों का नाथ : कैसे ?-(1) इन्द्रिय और मन को वश में कर लेने के कारण 'स्व' का नाथ हो जाता है / आत्मा इनकी तथा सांसारिक पदार्थों की गुलामी छोड़ देता है, तब अपना नाथ बन जाता है। (2) दूसरे व्यक्तियों का नाथ साधु बन जाने पर होता है, क्योंकि वास्तविक सुख जिन्हें अप्राप्त है, उन्हें प्राप्त कराता है तथा जिन्हें प्राप्त है, उन्हें रक्षणोपाय बताता है। इस कारण मुनि 'नाथ' बनता है। इसी प्रकार (3) त्रस-स्थावर जीवों का नाथ यानी शरणदाता, त्राता, धर्ममूर्ति संयमी साधु है ही। अपना 'नाथ' या 'अनाथ' कैसे ?--निश्चयदृष्टि से सत्प्रवृत्त अात्मा ही अपना नाथ है और दुष्प्रवृत्त आत्मा ही 'अनाथ' है / 'धम्मपद' में इस सम्बन्ध में एक गाथा है-- अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया। अत्तना ही सुदन्तेन 'नाथ' लभति दुल्लभं // 4 // 1. उत्तरा. मूलपाठ, प्र. 20 गा. 31 से 35 तक का सारांश / 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 176 / 3. प्रव्रजेयं-गृहान्निष्क्रामयेयम्, ततश्च अनगारतां-भावभिक्षुतामंगीकुर्यामिति / यद्वा--प्रव्रजेयं–प्रतिपद्येयमनमारिता, येन संसारोच्छित्तितो मूलत एव न वेदनासम्भवः / वही, पत्र 476 4. "कल्यो-नीरोगः सन् प्रभाते--प्रातः, यद्वा कल्ल इति चिन्तनादिनापेक्षया द्वितीयदिने प्रकर्षण वजितो गतः।" -वही, पत्र 476 5. (क) धम्मपद, 12 वा अत्तवग्गो, गा. 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org