________________ 330] [उत्तराध्ययनसून 96. बहुयाणि उ वासाणि सामण्णमणुपालिया। ____ मासिएण उ भत्तेण सिद्धि पत्तो अणुत्तरं // [16] बहुत वर्षों तक श्रामण्य का पालन कर (अन्त में) एक मासिक भक्त-प्रत्याख्यान (-अनशन) से उन्होंने (मृगापुत्र महर्षि ने) अनुत्तर सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की। विवेचन-भावाहि सुद्धाहि—शुद्ध अर्थात् निदान आदि दोषों से रहित, भावनाओं-अर्थात् महाव्रत सम्बन्धी भावनाओं अथवा अनित्यत्वादि-विषयक द्वादश भावनाओं से प्रात्मा को सम्यक्तया भावित करके यानी इन भावनाओं में तन्मय होकर / मासिएण भत्तेण–मासिक (एक मास का) उपवास (अनशन) करके। अणुत्तरं सिद्धि–समस्त सिद्धियों में प्रधान सिद्धि अर्थात् मुक्ति प्राप्त की।' महर्षि मृगापुत्र के चारित्र से प्रेरणा 97. एवं करन्ति संबुद्धा पण्डिया पवियक्खणा। विणियट्टन्ति भोगेसु मियापुत्ते जहा रिसी // [17] सम्बुद्ध, पण्डित और अतिविचक्षण व्यक्ति ऐसा ही करते हैं / वे कामभोगों से वैसे ही निवृत्त हो जाते हैं, जैसे कि महर्षि मृगापुत्र निवृत्त हुए थे। 98. महापभावस्स महाजसस्स मियाइ पुत्तस्स निसम्म भासियं / तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं गइप्पहाणं च तिलोगविस्सुयं / [38] महाप्रभावशाली, महायशस्वी मृगापुत्र के तपःप्रधान, (मोक्षरूप) गति से प्रधान, त्रिलोकविश्रुत (प्रसिद्ध) उत्तम चारित्र के कथन को सुन कर -99. वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं ममत्तबंधं च महन्भयावहं / सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं धारेह निव्याणगुणावहं महं॥ -त्ति बेमि। [16] धन को दुःखवर्द्धक और ममत्व-बन्धन को अत्यन्त भयावह जान कर (अनन्त-) सुखावह एवं निर्वाण-गुणों को प्राप्त कराने वाली अनुत्तर धर्मधुरा को धारण करो। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-संबुद्धा-(१) जिन की प्रज्ञा सम्यक् है, वे ज्ञानादि सम्पन्न / निव्वाणगुणावहं–निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कराने वाले अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखादि गुणों को धारण करने वाले। मियापुत्तस्स भासियं--मृगापुत्र का संसार को दुःख रूप बताने वाला वैराग्यमूलक कथन, जो उसने माता-पिता के समक्ष कहा था / // मृगापुत्रीय : उन्नीसवाँ अध्ययन समाप्त / 1. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र 465 2. बृहदवृत्ति, पत्र 466 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org