________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय [329 विवेचन-मृगापुत्र युवराज से निर्ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत गाथानों में मृगापुत्र के त्यागीनिर्ग्रन्थरूप का वर्णन किया गया है। महानागो व्व कंचुयं जैसे महानाग अपनी केंचुली छोड़कर आगे बढ़ जाता है, फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखता, वैसे ही मृगापुत्र भी सांसारिक माता-पिता, धन, धाम आदि का ममत्व-बन्धन तोड़ कर प्रव्रजित हो गया।' अनियाणो-इहलोक-परलोक सम्बन्धी विषय-सुखों का संकल्प निदान कहलाता है। महर्षि मृगापुत्र ने निदान का सर्वथा त्याग कर दिया। अबंधणो-रागद्वेषात्मक बन्धन से रहित / / अणिस्सिओ-इहलोक या परलोक में सुख, भोगसामग्री या किसी भी लौकिक लाभ की ग्राकांक्षा से तप, जप, ध्यान, व्रत, नियम आदि करना इहलोकनिश्रित या परलोकनिश्रित कहलाता है / दशवैकालिक में कहा गया है-इहलोक के लिए तप न करे। परलोक के लिए तप न करे और कीति, वर्ण, या श्लोक (प्रशंसा या प्रशस्ति) के लिए भी तपश्चरण न करे, किन्तु एकमात्र निर्जरा के लिए तपश्चरण करे / इसी प्रकार अन्य प्राचार के विषय में अनिश्रितता समझ लेनी चाहिए। महर्षि मृगापुत्र इहलोक और परलोक में अनिश्रित-वेलगाव हो गए थे। अपसत्थेहि दाहि-समस्त अप्रशस्त द्वारों यानी अशुभ आश्रवों (कर्मागमन-हेतुनों) से वे मर्वथा निवृत्त थे। पसत्थदमसासणे-वे प्रशंसनीय दम अर्थात्--उपशमरूप सर्वज्ञशासन में लीन हो गए।" असणे अणसणे तहा-'अशन' शब्द यहाँ कुत्सित अशन के अर्थ में अथवा अशनाभाव के अर्थ में है। अतः इस पंक्ति का अर्थ हुया--आहार मिलने तथा तुच्छ आहार मिलने या न मिलने पर भी जो समभाव में स्थित है। महर्षि मृगापुत्र : अनुत्तरसिद्धिप्राप्त 95. एवं नाणेण चरणेण दसणेण तवेण य। __ भावणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेत्तु अप्पयं // [65] इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप तथा शुद्ध भावनाओं के द्वारा आत्मा को सम्यक्तया भावित करके१. बृहद्वृत्ति, पत्र 463 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 465 : अबन्धनः-रागद्वेषबन्धनरहितः / 3. इहलोके परलोके वा अनिश्रितो, नेहलोकार्थ परलोकार्थवाऽनुष्ठानवान् / -वही, पत्र 465 4. 'अप्रशस्तेभ्य:-प्रशंसाऽनास्पदेभ्यः द्वारेभ्यः-कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादिभ्यः यः पाश्रवः-कर्मसंलग्नात्मकः स पिहितः निरुद्धो येन। -वही, पत्र 465 5. प्रशस्त:-प्रशंसास्पदो दमश्च उपशम: शासनं च-सर्वज्ञागमात्मक यस्य स प्रशस्तदमशासनः / -वही, पत्र 465 6. बृहद्वृत्ति, 465 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org