________________ 328] [उत्तराध्ययनसूत्र 188. इड्ढि वित्तं च मित्ते य पुत्त-दारं च नायओ। रेणुयं व पड़े लग्गं निद्ध णित्ताण निग्गओ / / [8] वस्त्र पर लगी हुई धूल की तरह ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, स्त्री और ज्ञातिजनों को झटक कर वह संयमयात्रा के लिए निकल पड़ा। 89. पंचमहन्वयजुत्तो पंचसमिनो तिगुत्तिगुत्तो य / सन्भिन्तर-बाहिरओ तवोकम्मंसि उज्जुओ। [6] (वह अब) पंच महाव्रतों से युक्त, पंच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, प्राभ्यन्तर और बाह्य तप में उद्यत (हो गया / ) 90. निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य॥ ___ [60] (वह) ममता से निवृत्त, निरहंकार, निःसंग (अनासक्त), गौरवत्यागी तथा त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर समदृष्टि (हो गया।) 91. लाभालाभे सुहे दुक्खे जोविए मरणे तहा। समो निन्दा-पसंसासु तहा माणावमाणओ॥ [61] (वह) लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवित और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समत्व का (पाराधक हो गया / ) 92. गारवेसु कसाएसु दण्ड-सल्ल-भएसु य। नियत्तो हास-सोगाओ अनियाको प्रबन्धणो।। [32] (वह) गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त एवं निदान और बन्धन से रहित (हो गया / ) 93. अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ। वासीचन्दणकप्पो य असणे अणसणे तहा / / [13] वह इहलोक में और परलोक में अनिश्रित -निरपेक्ष हो गया तथा वासी-चन्दनकल्पवसूले से काटे जाने अथवा चन्दन लगाए जाने पर भी अर्थात् सुख-दुःख में समभावशील एवं आहार मिलने या न मिलने पर भी समभाव (से रहने लगा।) 94. अप्पसत्थेहि दारेहि सव्वनो पिहियासवे / अज्झप्पशाणजोगेहिं पसत्थ-दमसासणे // [14] अप्रशस्त द्वारों (-कर्मोपार्जन हेतु रूप हिंसादि) से (होने वाले) पाश्रवों का सर्वतोभावेन निरोधक (महर्षि मृगापुत्र) अध्यात्म सम्बन्धो ध्यानयोगों से प्रशस्त संयममय शासन में लीन हुअा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org