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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय] [327 ताहारी होते हैं, इसलिए यह अर्थ भी संगत होता है। (3) मगचारिकां-जहाँ मृगों की स्वतंत्र रूप से बैठने की चर्या-चेष्टा होती है, उस प्राश्रयस्थान को भी मृगचारिका या मृगचर्या कहते हैं।' अणेगओ-अनेकगः-मृग जैसे एक ही नियत वृक्ष के नीचे नहीं बैठता, वह कभी किसी और कभी किसी वृक्ष का आश्रय लेता है, वैसे ही साधक भी एक ही स्थान में नहीं रहता, कभी कहीं और कभी कहीं रहता है / इसी प्रकार भिक्षा भी एक नियत घर से प्रतिदिन नहीं लेता। मृगचर्या का स्पष्टीकरण--गाथा 83 में मृग की चर्या के साथ मुनि की मृगचर्या की तुलना की गई है / मुनि मृगतुल्य अकेला (असहाय और एकाकी) होता है, उसके साथ दूसरा कोई सहायक नहीं होता / वह मृग के समान अनेकचारी होता है / अर्थात् वह एक ही जगह आहार-पानी के लिए विचरण नहीं करता, बदल-बदल कर भिन्न-भिन्न स्थानों में जाता है। इसी तरह वह मृगवत् अनेकवास होता है, अर्थात् वह एक ही स्थान में निवास नहीं करता तथा ध्र वगोचर होता है / अर्थात् जैसे मृग स्वयं इधर-उधर भ्रमण करके अपना आहार ढूंढ कर चर लेता है, किसी और से नहीं मंगाता, इसी प्रकार साधु भी अपने सेवक या भक्त से आहार-पानी नहीं मंगाता / वह ध्र वगोचर (अर्थात्-गोचरी में प्राप्त आहार का ही सेवन करता है तथा मृग, जैसा भी मिल जाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता है, वह न तो किसी से शिकायत करता है, न किसी की निन्दा और भर्त्सना करता है, उसी प्रकार मुनि भी कदाचित् मनोज्ञ या पर्याप्त आहार न मिले अथवा सूखा, रूखा, नीरस आहार मिले तो भी न किसो की अवज्ञा करता है और न किसी की निन्दा या भर्त्सना करता है। इसी प्रकार मृगचर्या में अप्रतिबद्धविहार, पादविहार, गोचरी, चिकित्सानिवृत्ति आदि सभी गुण आ जाते हैं। ऐसी मृगचर्यापालन का सर्वोत्कृष्ट फल-- सर्वोपरि स्थान में (मोक्ष में) गमन बताया गया है। जहाइ उवहि-मृगापुत्र उपधि का परित्याग करता है, अर्थात्-द्रव्यतः गृहस्थोचित वेष, ग्राभरण, वस्त्रादि उपकरणों का, भावतः कषाय, विषय, छल-छद्म आदि (जो प्रात्मा को नरक में स्थापित करते हैं, ऐसी) भावोपधि का त्याग करता है-प्रवजित होता है। मृगापुत्र : श्रमण निर्ग्रन्थरूप में 87. एवं सो अम्मापियरो अणुमाणित्ताण बहुविहं / ममत्तं छिन्दई ताहे महानागो व्व कंचुयं / / [87] इस प्रकार वह (मृगापुत्र) अनेक प्रकार से माता-पिता को अनुमति के लिए मना कर उनके (या उनके प्रति) ममत्व को त्याग देता है, जैसे कि महानाग (महासर्प) केंचुली का परित्याग कर देता है। 1. (क) मुगाणां चर्या --इतश्चेतश्चोत्प्लवनात्मक चरण मृगचर्या ता, मितचारितां वा परिमितभक्षणात्मिकां / (ख) मृगाणां चर्या--चेष्टा स्वातत्योपवेशनादिका यस्यां सा मृगचर्या-मुगाश्रयभूः / -~-बृहदत्ति, पत्र 462-463 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 463 3. वही, पत्र 463 4. वही, पत्र 463 : "त्यजति उपधि---उपकरणमाभरणादि द्रव्यत: भावतस्तु छदमादि येनात्मा नरक उपधीयते, ततश्च प्रव्रजतीत्युक्त भवति / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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