SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 326] [उत्तराध्ययनसून विवेचन-मृगचर्या का संकल्प—मृगापुत्र के माता-पिता ने उसे जब श्रमणधर्म में रोगचिकित्सा के निषेध को दुःखकारक बताया तो मृगापुत्र ने वन में एकाकी विचरणशील मृग का उदाहरण देते हुए कहा कि मृग जब रुग्ण हो जाता है तो कौन उसे औषध देता है ? कौन उसे घासचारा देता है ? कौन उसकी सेवा करता है ? वह प्रकृति पर निर्भर हो कर जीता है, विचरण करता है और जब स्वस्थ होता है, तब स्वयं अपनी चर्या करता हुआ अपनी प्रावासभूमि में चला जाता है / इसलिए मैं भी वैसी ही मृगचर्या करूंगा। उनके लिए अपनी चर्या दुःखरूप नहीं है, तो मेरे लिए क्यों होगी।' प्रस्तुत गाथाओं में चिकित्सा-निरपेक्षता के सन्दर्भ में मृग और पक्षियों का तथा आगे की गाथाओं में केवल मृग का बारबार उल्लेख किया गया है, अन्य पशुओं का क्यों नहीं ? इसका समाधान बृहद्वृत्तिकार ने किया है कि मृग प्रायः प्रशमप्रधान होते हैं, इसलिए एकचारी साधक के लिए मृगचर्या युक्तिसंगत जंचती है। एगभूमो अरण्णे वा–घोर जंगल में मृग का कोई सहायक नहीं होता. जो उसकी सहायता कर सके, वह अकेला ही होता है, मृगापुत्र भी उसी तरह एकाकी और असहाय होकर संयम और तप सहित निर्ग्रन्थधर्म का आचरण करने का संकल्प प्रकट करता है। इस गाथा से यह स्पष्ट है कि मृगापुत्र स्वयंबुद्ध (जातिस्मरणज्ञान के निमित्त से) होने के कारण एकलविहारी बने थे। गाथा 77 और 83 से यह स्पष्ट है।' गच्छइ गोयर-इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि जब मृग स्वतः रोग-रहित-स्वस्थ हो जाता है, तब वह अपने तृणादि के भोजन की तलाश में गोचरभूमि में चल जाता है / गोचर का अर्थ बृहद्वत्ति में यह किया गया है- गाय जैसे परिचित-अपरिचित भूभाग की कल्पना से रहित होकर अपने आहार के लिए विचरण करती है, वैसे ही मृग भी परिचित-अपरिचित गोचरभूमि में जाता है / वल्लराणि-वल्लर शब्द के अनेक अर्थ यहाँ बहवत्तिकार ने दिये हैं-गहन लतानिकज, अपानीय देश, अरण्य और क्षेत्र। प्रस्तुत प्रसंग में वल्लरों के विभिन्न लताकुज अर्थ सम्भव है। अर्थात् वह मृग कभी किसी वल्लर में और कभी किसी में अपने आहार की तलाश के लिए जाता है।५ मियचारियं चरित्ताणं-(१) मृगचर्या इधर-उधर उछलकूद के रूप में जो मृगों को चर्या है, उसे करता हुा / (2) मितचारिता-परिमित भक्षणरूपा चर्या करके / मृग स्वभावतः परिमि 1. उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 462 2. 'इह च मृगपक्षिणामुभयेषामुपक्षेपे, यन्मृगस्यैव पुनः पुनदृष्टान्तत्वेन समर्थन, तत्तस्य प्रायः प्रशमप्रधानत्वादिति सम्प्रदायः / -बुहद्वृत्ति, पत्र 463 3. वही, पत्र 462-463 : "एकभूतः--एकत्वं प्राप्तोऽरण्ये / " 'एक:-अद्वितीयः।' 4. 'गौरिव परिचितेतरभभामपरिभावनारहितत्वेन चरणं भ्रमणमस्मिन्निति गोचरस्तम / -बहत्ति , पत्र 462 5. बल्लराणि-गहनानि / उक्तञ्च- 'गहणमवाणियं रणे छत्तं च वल्लरं जाण / ' -बहदवत्ति, पत्र 462 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy