________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय] [325 81. जया य से सुही होइ तया गच्छइ गोयरं / भत्तपाणस्स अट्ठाए वल्लराणि सराणि य / / [81] जब वह सुखी (स्वस्थ) हो जाता है, तब स्वयं गोचरभूमि में जाता है तथा खानेपीने के लिए वल्लरों (-लता-निकुंजों) एवं जलाशयों को खोजता है। 82. खाइत्ता पाणियं पाउं वल्लरेहिं सरेहि वा। मिगचारियं चरित्ताणं गच्छई मिगचारियं // [82] लता-निकुंजों और जलाशयों में खा (चर) कर, और पानी पी कर, मृगचर्या करता (उछलता-कूदता) हुआ वह मृग अपनी मृगचारिका (मृगों की आवासभूमि) को चला जाता है। 83. एवं समुट्ठिनो भिक्खू एवमेव अणेगओ / मिगचारियं चरित्ताणं उड्ढे पक्कमई दिसं / / [83] इसी प्रकार संयम के अनुष्ठान में समुद्यत (तत्पर) इसी (मृग की) तरह रोगोत्पत्ति होने पर चिकित्सा नहीं करने वाला तथा स्वतंत्र रूप से अनेक स्थानों में रह कर भिक्षु मृगचर्या का आचरण (-पालन) करके ऊर्ध्व दिशा (मोक्ष) को प्रयाण करता है। 84. जहा मिगे एग अणेगचारी अणेगवासे धुवगोयरे य / एवं मुणी गोयरियं पविठे नो होलए नो वि य खिसएज्जा / / [84] जैसे मृग अकेला अनेक स्थानों में चरता (भोजन-पानी आदि लेता) है अथवा विचरता है, अनेक स्थानों में रहता है, गोचरचर्या से ही स्थायीरूप से जीवन निर्वाह करता है, (ठीक) वैसे ही (मृगचर्या में अभ्यस्त) मुनि गोचरी के लिए प्रविष्ट होने पर किसी की हीलना (निन्दा) नहीं करता और न ही किसी की अवज्ञा करता है / संयम को अनुमति और मृगचर्या का संकल्प 85. मिगचारियं चरिस्सामि एवं पुत्ता ! जहासुहं। अम्मापिहिं अणुन्नाओ जहाइ उहि तओ। [85] (मृगापुत्र) हे माता-पिता ! मैं भी मृगचर्या का आचरण (पालन) करूंगा। (माता-पिता)—'हे पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो।" इस प्रकार माता-पिता की अनुमति पा कर फिर वह उपधि (गृहस्थाश्रम-सम्बन्धी समस्त परिग्रह) का परित्याग करता है / 86. मियचारियं चरिस्सामि सव्वदुक्खविमोक्खणि / तुन्भेहि अम्म ! ऽणुनानो गच्छ पुत्त ! जहासुहं / [86] (मृगापुत्र माता से)-"माताजी ! मैं आपकी अनुमति पा कर समस्त दुःखों का क्षय करने वाली मृगचर्या का आचरण (पालन) करूगा / " (माता)-"पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org