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________________ 324] [उत्तराध्ययनसूत्र माता-पिता द्वारा अनुमति, किन्तु चिकित्सा-समस्या प्रस्तुत 76. तं बितऽम्मापियरो छन्देणं पुत्त! पव्वया / नवरं पुण सामण्णे दुक्खं निप्पडिकम्मया // [76.] माता-पिता ने उससे कहा-पुत्र ! अपनी इच्छानुसार तुम (भले ही) प्रव्रज्या ग्रहण करो, किन्तु विशेष बात यह है कि श्रमणजोवन में निष्प्रतिकर्मता (-रोग होने पर चिकित्सा का निषेध) यह दुःखरूप है। विवेचन--निष्प्रतिकर्मता : विधि-निषेध : एक चिन्तन-निष्प्रतिकर्मता का अर्थ है-रोगादि उत्पन्न होने पर भी उसका प्रतीकार-औषध आदि सेवन न करना / दशवकालिकसूत्र में इसे अनाचीर्ण बताते हुए कहा गया है कि 'साधु चिकित्सा का अभिनन्दन न करें तथा उत्तराध्ययनसूत्र सभिक्षुक अध्ययन में कहा गया है--'जो चिकित्सा का परित्याग करता है, वह भिक्षु है।' यहाँ साध्वाचार के रूप में निष्प्रतिकर्मता का उल्लेख इसी तथ्य का समर्थन करता है। परन्तु यह विधान विशिष्ट अभिग्रहधारी या एकलविहारी निर्ग्रन्थ साधु के लिए प्रतीत होता है।' मृगापुत्र द्वारा मृगचर्या से निष्प्रतिकर्मता का समर्थन 77. सो बितऽम्मापियरो! एवमेयं जहाफुडं / ___ पडिकम्मं को कुणई अरणे मियपविखणं? [77] वह (मृगापुत्र) बोला-माता-पिता ! (आपने जो कहा, वह उसी प्रकार सत्य है, किन्तु अरण्य में रहने वाले पशुओं (मृग) एवं पक्षियों की कौन चिकित्सा करता है ? 78. एगभूओ अरण्णे वा जहा उ चरई मिगो / एवं धम्म चरिस्सामि संजमेण तवेण य॥ [78] जैसे-वन में मृग अकेला विचरण करता है, वैसे मैं भी संयम और तप के साथ (एकाकी होकर) धर्म (निर्ग्रन्थधर्म) का आचरण करूंगा। 79. जया मिगस्स आयंको महारण्णम्मि जायई / अच्छन्तं रुक्खमूलम्मि को णं ताहे तिगिच्छई ? [76] जब महावन में मृग के शरीर में आतंक (शीघु घातक रोग) उत्पन्न होता है, तब वृक्ष के नीचे (मूल में) बैठे हुए उस मृग की कौन चिकित्सा करता है ? 80. को वा से ओसहं देई ? को वा से पुच्छइ सुहं ? को से भत्तं च पाणं च आहरित्त पणामए ? [80] कौन उसे औषध देता है ? कौन उससे सुख की (कुशल-मंगल या स्वास्थ्य की) बात पूछता है ? कौन उसे भक्त-पान (भोजन-पानी) ला कर देता है ? 1. (क) 'निष्प्रतिकर्मता-कथंचिद् रोगोत्पत्ती चिकित्साऽकरणरूपेति / –बृहद्वत्ति, पत्र 462 (ख) 'तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा'। -दशवै. अ. 3 / 31-33 (ग) " ...."तिगिच्छियं च..."तं परिम्नाय परिवए स भिक्खू।" --उत्तरा. अ.१५, गा.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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